अमेरिकन लेखकों ने इस नाम के अन्तर्गत कुछ आवश्यक अनसेचुरेटेड वसा अम्ल, विशेषत: लाइनोलिक, लिनोलेनिक एसिड का वर्णन किया है। ये वनस्पति और जन्तु-जनित तेलों में बहुत ही भिन्न मात्राओं में पाये जाते हैं । अलसी का तेल, सोयाबीन का तेल, बिनौला का तेल और जौ (अनाज) के अंकुरों का तेल में यह पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है ।
इस विटामिन के प्रभाव का अध्ययन चूहों पर किया गया और पाया गया कि इसकी हीनता (कमी) से चूहों की वृद्धि रुक जाती है, त्वचा शुष्क पड़ जाती है, बाल रूक्ष और क्षीण हो जाते हैं। चूहों के पूँछ के बाल भी उड़ गये और मूत्र संस्थान भी प्रभावित हुआ तथा चूहों को मूत्र में रक्त आने लगा । मादा चूहों में डिम्ब उत्पत्ति में तथा गर्भस्थापन में रुकावट आ गई। नर चूहों में सेक्स इच्छा का लोप हो गया और उनके वीर्य में शुक्राणुओं का अभाव हो गया ।
इसी अनुभव के आधार पर इस विटामिन की कमी मनुष्य में हो जाने पर मनुष्य के बाल भी शुष्क, खुरदरे और निर्जीव हो जाते हैं, चर्म से छिलके उतरने लग जाते हैं, चर्म का रंग खराब हो जाता है और चर्म की सुन्दरता समाप्त हो जाती है । रोगी अधिक खाने लग जाता है, उसके वृक्कों (गुर्दों या किडनी) को हानि पहुँच जाती है और वह अपना कार्य नहीं कर पता है। पित्ताशय में कष्ट पैदा हो जाते हैं, एक्जिमा हो जाता है, गर्मी में कष्ट बढ़ जाते हैं । विटामिन A, D, E और K शरीरांश नहीं बन सकते । बूढ़े मनुष्यों की प्रोस्टेट ग्लैण्ड में शोथ आ जाती है और वह बड़ी हो जाती है जिसके कारण बूढ़े लोगों का मूत्र रुक जाता है, बड़ी कठिनाई से आता है अथवा बूंद-बूंद करके आता है और कभी-कभी तो मूत्र कपड़ों में ही निकल जाता है ।
अमेरिका के ‘डॉ० जे. पी. हार्ट’ ने प्रोस्टेट ग्लैण्ड के 19 रोगियों को विटामिन F के प्रयोग से स्वस्थ बना लिया । बूढ़े रोगियों को मूत्र पूरी मात्रा में न आने के कारण मूत्राशय में मूत्र सड़ता रहता है और यह मूत्र संक्रमण फैला देता है । रात्रि में बार-बार मूत्र त्याग हेतु उठना भी पड़ता है, इसके अतिरिक्त पिण्डलियों और टाँगों में दर्द होना, मूत्राशय में सूजन, कपड़ों में मूत्र निकल जाना आदि रोग हो जाते हैं । इस विटामिन के प्रयोग से उपर्युक्त कष्ट दूर होकर बुढ़ापे में सम्भोग करने की शक्ति बढ़ जाती है। मूत्र पतली धार के स्थान पर मोटी धार में आने लगता है और बढ़ी हुई प्रोस्टेट ग्लैण्ड अपनी सामान्य अवस्था में आ जाती है ।
विटामिन ‘एफ’ के अधिक प्रयोग से बाल और चर्म मुलायम, लचकीले और सुन्दर हो जाते हैं तथा मनुष्य में चुस्ती-फुर्ती और शक्ति पैदा हो जाती है। इस विटामिन के प्रयोग से उच्च रक्तचाप भी कम हो जाता है । हृदय के रोग और कमजोरी भी दूर हो जाती है। रक्त में कोलेस्ट्रोल घट जाती है। यह विटामिन बुढ़ापे के रोगों और कमजोरी में बहुत ही अधिक लाभकारी है। इसके प्रयोग से आयु बढ़ जाती है ।
भारत में अभी तक विटामिन ‘एफ’ की टिकिया बाजार में उपलब्ध नहीं है जबकि अमेरिका में इसकी उपलब्धता और बिक्री बहुत अधिक है। घी, मक्खन, चर्बी इत्यादि में यह विटामिन नहीं पाई जाती जबकि, सूरजमुखी के फूलों के बीज, तिलों और विशेषकर कद्दू के बीजों की गिरी में बहुत होती है। कद्दू (काशीफल या गंगाफल) के बीजों की गिरी मूत्राशय और वृक्कों की सूजन दूर करती है। मूत्र रुक जाना और जलन के साथ मूत्र आना में भी यह बीज लाभकारी है, इसके अतिरिक्त क्षय रोगी के लिए कद्दू की सब्जी और इसके बीज शक्तिशाली खाद्य है। जो लोग कद्दू अथवा इसके बीजों की गिरी खाते रहते हैं उनको क्षय रोग नहीं होता है। बुढ़ापे में इसके प्रयोग से रक्त वाहिनियाँ मुलायम रहती हैं और हृदय शक्तिशाली बना रहता है। कद्दू के बीजों की गिरी की चिकनाई में विटामिन ‘एफ’ बहुत अधिकता से होता है। इन रोगों में कद्दू के बीजों की गिरी पीसकर 1 से 3 ग्राम तक की मात्रा में दूध अथवा मधु में मिलाकर दें। इसके प्रयोग से नींद न आना, दिमाग की खुश्की, पागलपन, फेफड़ों से रक्त आना, गर्मी के ज्वर और भीतरी अंगों से रक्त आने तक को आराम आ जाता है।