विटामिन K की खोज का इतिहास रक्तक्षरण की प्रवृत्ति को देखकर खोज होने से सम्बन्धित है । सन् 1929 और 1933 के बीच कई वैज्ञानिकों ने वसाहीन आहार पोषित मुर्गी के बच्चों में स्वत: रक्तक्षरण की प्रवृत्ति देखी । इसके अनुसन्धान से ज्ञात हुआ कि खाद्य में कोई तत्त्व इसके लिए उत्तरदायी है। सन् 1934 ई० में ‘डैम’ ने वसा में घुलनशील इस खाद्य तत्त्व की निश्चित उपस्थिति की घोषणा की । अगले वर्ष ही उसने इसके लिए विटामिन ‘के’ का नाम प्रस्तावित किया । (Koagulation Vitamin) क्योंकि यह विटामिन रक्त जमने की क्रिया से सम्बन्धित पाया गया, तबसे इसका नाम विटामिन ‘के’ प्रचलित है । ।
सर्वप्रथम 1939 ई० में अल्फा-आल्फा नामक घास से इस विटामिन को पृथक किया गया । हरी घास में इसकी मात्रा सर्वाधिक है । हरी शाक-भाजी इस विटामिन के सर्वाधिक धनी पदार्थ हैं । पालक, करमकल्ला, गोभी, गाजर का ऊपरी भाग, बन्दगोभी के हरे पत्तों, सोयाबीन, अंकुरित अनाज और टमाटर में, पालक, अल्फालफा, ताजा पैदा हुए कोमल हरे जौ, चावल के छिलके, हरी सब्जियों और पशुओं के जिगर में यह विटामिन बहुतायत से पाया जाता है । पशुजन्य खाद्य पदार्थों में भी यह होता है। आँतों में उपस्थित जीवाणु भी इस विटामिन का निर्माण करते हैं । परन्तु सल्फा औषधियों के प्रयोग से आँतों के इन जीवाणुओं का नाश हो जाता है और इस विटामिन का निर्माण रुक जाता है । वसा में घुलनशील अन्य विटामिनों की तरह ही इसके आत्मीकरण के लिए भी ‘पित्त’ की उपस्थिति अनिवार्य है । अत: जब आँतों में पित्त नहीं आता है, तब इसका आत्मीकरण रुक जाता है ।
विटामिन ‘के’ का सम्बन्ध रक्त जमने से है । किसी स्थान पर चोट लगने से जब कोई रक्त का कोई रक्त वाहिनी क्षत हो जाती है और उससे रक्त का स्राव होता है तो थोड़ी ही देर में रक्त गाढ़ा हो जाता है और उस स्थान पर एक गड्ढा-सा बनकर रक्त का स्राव रुक जाता है । इस रक्त जमने की प्रक्रिया में कई चीजें सम्बन्ध रखती हैं, उनमें से एक तत्त्व ‘प्रोथॉम्बिन’ होता है, जो यकृत में निर्मित होता है। इसके निर्माण के लिए रक्त में विटामिन K की उपर्युक्त मात्रा में उपस्थिति आवश्यक होती है। इस विटामिन की न्यूनता से ‘प्रोथॉम्बिन’ की मात्रा कम हो जाती है और इस तरह रक्त जमने की क्रिया में बिलम्ब होता है । जब रक्त में प्रोथॉम्बिन की मात्रा सामान्य की 35% रह जाती है तब ऐसे व्यक्तियों में चोट आदि लगने से अथवा ऑपरेशन के बाद रक्त जमने की क्रिया में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है । जब विटामिन ‘के’ की अधिक कमी हो जाती है तो रक्त में प्रोथॉम्बिन की मात्रा 15% रह जाती है और तब ऐसे व्यक्ति में स्वत: रक्तस्राव की प्रवृत्ति पाई जाती है। ऐसी अवस्था में पीठ, चूतड़, जाँध तथा अन्य दबने वाले स्थानों पर तन्तुओं के अन्दर रक्त क्षरण होने लगता है। जोड़ों में रक्तस्राव, रक्तवमन, नाक से खून आना, मूत्र में रक्त या मल के साथ रक्तस्राव हो सकता है।
नवजात शिशुओं में रक्तक्षरण की प्रवृत्ति मिलती है । शिशु के जन्म से 5-6 दिन की अवधि में शिशु की नाभि से, मूत्र मार्ग से, गुदा मार्ग से, वमन से और कपाल के अन्दर रक्तक्षरण होने लगता है । ऐसी अवस्था में विटामिन ‘के’ का प्रयोग करें ।
शरीर में यकृत के विकारों में, पित्तस्रोत, नलिका में किसी भी कारण से अवरोध होने पर, अवरोध-जन्य कामला में रक्तक्षरण की प्रवृत्ति पाई जाती है । कुछ औषधियों जैसे – आर्गेनिक, आर्सेनिक, सल्फोनेमाइड, एस्पिरिन और सैलिसिलेट इत्यादि के प्रयोग से रक्त में प्रोथॉम्बिन की मात्रा कम हो जाती है और रोगियों में रक्तक्षरण की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। इन अवस्थाओं में विटामिन ‘के’ का प्रयोग कराना आवश्यक होता है। किन्तु यकृत के उन गम्भीर रोगों में जहाँ यकृत कोषों का सामूहिक क्षय या नाश हो गया है – वहाँ विटामिन K के प्रयोग से बड़ा लाभ नहीं होता क्योंकि प्रोथॉम्बिन के निर्माण के लिए पर्याप्त स्वस्थ यकृत अनिवार्य है ।
रक्तस्राव के समय रक्त जमने के समय का ज्ञान किया जाता है और इसे ‘प्रोथॉम्बिन टाइम’ कहा जाता है । एक स्वस्थ व्यक्ति का प्रोथॉम्बिन टाइम 10 से 15 सेकेण्ड तक होता है । यदि यह समय 30 सेकेण्ड हो तो रोगी पर विशेष ध्यान देना चाहिए और यदि यह टाइम 45 सेकेण्ड हो जाये तो समझना चाहिए कि रक्तक्षरण की प्रवृत्ति होगी । अत: अॉप्रेशन करते समय पहले रोगी के रक्त का प्रोथॉम्बिन टाइम का ध्यान करना आवश्यक होता है, और यदि यह टाइम अस्वाभाविक हो तो विटामिन ‘के’ का अवश्य प्रयोग कराना चाहिए । इसके अतिरिक्त उन अवस्थाओं में जिनमें रक्तक्षरण की प्रवृत्ति हो तो विटामिन ‘के’ का प्रयोग कराना चाहिए । हीमोफीलिया आदि रक्तस्राव कारक रोगों में विटामिन ‘के’ का प्रयोग अपेक्षित होता है । पाचन संस्थान के उन विकारों में जिनमें विटामिन ‘के’ का आत्मीकरण ठीक प्रकार न हो, उनमें विटामिन के का प्रयोग कराना चाहिए । आँतों के विकारों में जिनमें वसा का आत्मीकरण नहीं होता, उनमें भी इस विटामिन के प्रयोग की आवश्यकता होती है । जिन स्त्रियों में गर्भपात की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो या गर्भाशय से रक्त का स्राव होता हो, उनको भी यह विटामिन दें ।
इस तरह यह विटामिन रक्त क्षरण की प्रवृत्ति को रोकने वाला है और ऐसी सभी अवस्थाओं में प्रोथॉम्बिन की मात्रा घट गई हो तो विटामिन ‘के’ का प्रयोग करना चाहिए। गर्भवती स्त्री को बच्चा पैदा होने पर (दर्द शुरू होने और बच्चा पैदा होने से पहले) एक सप्ताह तक विटामिन ‘K’ के खिलाते रहने से स्त्री के रक्त में प्रोथॉम्बिन की मात्रा बढ़ जाती है। यह अंश गर्भाशय के बच्चे में भी बढ़ जाता है जिससे बच्चा पैदा होने पर उसकी नाल (नाभि) काटने पर अधिक रक्त नहीं बहता है । बच्चा पैदा होने के बाद भी (नवजात शिशु) को पैदा होते ही 2 मिलीग्राम विटामिन ‘के’ खिलाना आरम्भ कर देने से बाद में होने वाला रक्तस्राव नहीं हो पाता है ।
विटामिन ‘के’ की कमी अधूरी उपलब्धि या इसके अन्तड़ियों द्वारा उचित रूप में शोषित नहीं होने पर बदले हुए स्नेह पाचन से या यकृत की क्रिया में गड़बड़ी उत्पन्न होने से प्रोथॉम्बिन का अभाव हो जाता है। जीर्ण अतिसार, संग्रहणी, पुरानी पेचिश, बड़ी अन्तड़ियों में व्रण और सूजन आदि रोग में विटामिन ‘के’ की कमी हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि अन्तड़ियों में पित्त के अभाव में भी विटामिन शोषित न होकर शरीर में इसकी कमी हो जाती है ।
जिन रोगियों का यकृत रोगग्रस्त रहता है, उनमें रक्त अधिक बहने लग जाता है क्योंकि यकृत विटामिन ‘के’ वाले भोजन और दवाओं को शरीरांश नहीं बना सकता, जिससे मनुष्य शरीर में प्रोथॉम्बिन की कमी हो जाती है। अन्तड़ियों में पित्त कम मात्रा में पहुँचने पर भी रक्त बहने लग जाया करता है। विटामिन ‘के’ रक्त बहने को रोकने के लिए स्त्री को बच्चा पैदा होने से पहले दिया जाता है । गर्भवती के शरीर में विषैले प्रभाव पैदा हो जाने, समय से पहले प्रसव-पीड़ायें में शुरू हो जाने, बच्चा पैदा होने में कष्ट होने अथवा डॉक्टरी यन्त्रों से बच्चा पैदा करवाने, नवजात शिशु का ऑपरेशन करने, नवजात शिशु को कोई ऐसा रोग हो जाने, जिसमें रक्त अधिक बहने का डर हो, बच्चो को पाण्डु रोग (यरकान) और रक्ताल्पता का रोग हो जाने पर इस विटामिन का प्रयोग करना बहुत जरूरी होता है ।
आधुनिक काल में उत्पन्न हुए बच्चे सामान्यत: प्रोथॉम्बिन की कमी से पीड़ित हो जाते हैं और उनमें रक्तस्राव होने के लक्षण पैदा हो जाते हैं । निम्न रोग या अवस्थाओं में विटामिन ‘के’ का प्रयोग आवश्यक है-
• अस्त्र-शस्त्र के चोट से उत्पन्न रक्तस्त्राव में जब रक्त जमने की स्थिति में नहीं रहता है और निरन्तर बहता रहता है ।
• राजयक्ष्मा में, मुँह से रक्तपित्त में, नाक से और आन्त्रिक ज्वर में मल के साथ रक्त आने में इसका प्रयोग आवश्यक है ।
• कभी-कभी रक्तप्रदर में, प्राय: सदैव शीतपित्त में, पुराने शीत पित्त की खुजली में इस विटामिन का प्रयोग अति लाभप्रद है ।
• जब नये जन्म लिये शिशु में शल्यकर्म करने की आवश्यकता प्रतीत हो अथवा नन्हें शिशुओं को कामला रोग हो गया हो तो उनके शरीर में किसी भी प्रकार का रक्तस्राव हो तो विटामिन ‘के’ का प्रयोग गुणकारी है ।
अन्तड़ियों में रहने वाले कीटाणुओं द्वारा इस विटामिन का निर्माण होता है। वसा में इसे विलीन होना पड़ता है तथा यह आन्त्र प्राचीरों द्वारा शोषित होकर रक्त में मिल जाता है । इन कायाँ में यकृत के पित्त का बहुत बड़ा सहयोग रहता है। यह विटामिन पीले रंग के कणों के रूप में मिलता है और तेलों में घुल जाता है । बाजार में यह टैबलेट और इन्जेक्शन के रूप में प्राप्त है । इसको 2 मिलीग्राम की मात्रा में दिन में तीन बार खिलाते रहने से 24 से 48 घण्टों के अन्दर रक्त में प्रोथॉम्बिन नार्मल हो जाती है। रोगी का रक्त बहुत अधिक बहने और न रुकने पर इसका इन्जेक्शन लगाने से डेढ़ से तीन घण्टे के अन्दर रक्त बहना रुक जाता है। रक्तस्राव वाले प्राय: समस्त रोगों में इसकी आवश्यकता पड़ती है, अतएव इसे इन्जेक्शन द्वारा ही प्रत्युक्त करना चाहिए। नन्हें शिशुओं में 0.5 मिलीग्राम का मांस में 3-4 दिन तक इन्जेक्शन लगायें इसके बाद अधिक आवश्यकता पड़ने पर मुख से 5 मिलीग्राम की 1-1 टिकिया करके प्रतिदिन खिलायें । वयस्क रोगियों में रोग की तीव्रता के अनुसार अधिकतम 300 मिलीग्राम एक बार प्रतिदिन तथा न्यूनतम 10 मिलीग्राम दिन में 1 बार प्रयोग करा सकते हैं । अधिक रक्तस्राव होने की दशा में 10 मिली. (100 मिलीग्राम) या घनरूप में 1 मिली. (100 मिलीग्राम) का माँस में इन्जेक्शन दिन में 3 बार प्रतिदिन दे सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर 300 मिलीग्राम को घनरूप में 3 मि.ली. की मात्रा में इन्जेक्शन लगा सकते हैं।