Zincum Metallicum Benefits In Hindi
(1) संपूर्ण स्नायु-मंडल की शिथिलता तथा प्रतिक्रिया का अभाव (Nervous prostration and lack of vital reaction) – यह एक अत्युत्तम ‘अनेक-कार्य-साधक’ (Polychrest) औषधि है। इसका मुख्य लक्षण संपूर्ण स्नायु-मंडल की शिथिलता है। स्नायु-मंडल की कमजोरी, शक्तिहीनता, सामर्थ्य का अभाव इस औषधि में कूट-कूट कर भरा हुआ है। स्नायु-मंडल इतना शक्तिहीन हो जाता है कि त्वचा पर कीड़ियों के चलने का-सा अनुभव होता है। डॉ० नैश लिखते हैं कि श्री बर्ट का कहना था कि लोह का रक्त की कमी को दूर करने में जो असर है, जिंक का स्नायु-शक्ति की कमी को दूर करने में वैसा ही असर है। इस रोगी की शारीरिक तथा स्नायविक रचना लगभग टूट चुकी होती है, मस्तिष्क काम नहीं करता, क्लान्त (Brain-tag) रहता है, मस्तिष्क में रक्तहीनता की वजह से कमजोरी आ जाती है। रोगी का मन अत्यन्त धीमी गति से काम करता है, रोगी अशक्त और थका रहता है। जब उस से कोई प्रश्न किया जाता है, तो वह उत्तर देने से पहले प्रश्न को दोहराता है। दोहराता इसलिये है ताकि प्रश्न के अभिप्राय को वह समझ ले। प्राय: ऐसी हालत टाइफॉयड के रोगी में पायी जाती है जब कि वह पूर्ण स्वस्थ होने के स्थान में लटकता रहता है। जिंकम के रोगी की तरफ देखने से यह नहीं पता चलता कि वह इतना शक्तिहीन हो गया है, परन्तु अगर उस से कोई प्रश्न किया जाय, तो वह उत्तर देने के बजाय तुम्हारी तरफ ताकता भर है, और कुछ देर बाद कहता है – ओह! ‘ओह’-वह इसलिये कहता है क्योंकि इतनी देर बाद वह प्रश्न को समझ चुका होता है। रोगी को कोई बात याद नहीं रहती। मस्तिष्क की थकावट और अशक्ति (Cerebral exhaustion) इतनी जबर्दस्त हो जाती है कि कोई-सा भी मानसिक-कार्य करने में कठिनाई अनुभव होती है। रोगी किसी बात को समझ नहीं पाता, और एक विचार को दूसरे विचार से जोड़ नहीं पाता। दिनभर में उसने जो काम स्वयं किये होते हैं उनकी भी उसे याददाश्त नहीं रहती।
प्रतिक्रिया का अभाव (Lack of vital reaction) – रोगी जीवन का संहार करनेवाली किसी बीमारी के विनाशकारी-प्रभाव के वशीभूत होता है। यह विनाशकारी-प्रभाव उसकी जीवनी-शक्ति पर आक्रमण करता है। जीवनी-शक्ति कमजोर हो जाने के कारण रोग को बाहर फेंक देने में अशक्त हो जाती है, और रोग शरीर के भीतर-ही-भीतर अपने विनाशकारी प्रभाव के द्वारा रोगी के आन्तरिक कोमल अंगों को मानो शत्रु की तरह काटता, कचोटता जाता है। जिंकम का काम इस भीतर छिपे हुए शत्रु का मुकाबला करना है। जबतक रोगी को भीतर से सतानेवाला शत्रु बाहर नहीं आ जाता, तबतक उसका संहार भी नहीं किया जा सकता। जिंकम जीवनी शक्ति-स्नायु-मंडल में बल का संचार कर उसे समर्थ बना देता है। दबा हुआ रोग भीतर छिप कर रोगी को सताया करता है। उदाहरणार्थ : (i) स्नायु-मंडल की शिथिलता तथा प्रतिक्रिया के अभाव के कारण खसरा-चेचक आदि के दानों का बाहर न निकल सकना, और रोग के भीतर रहने से डिलीरियम, मैनेंजाइटिस आदि रोग उत्पन्न कर देना; (ii) स्नायु-मंडल की शिथिलता तथा प्रतिक्रिया के अभाव के कारण युवावस्था आ जाने पर लड़कियों की माहवारी न होना और माहवारी न होने से अंगों में फड़कन या रोगी को हिस्टीरिया आदि होना; (iii) स्नायु-मंडल की शिथिलता तथा प्रतिक्रिया के अभाव के कारण दमे आदि रोग में रोगी का इतना निर्बल हो जाना कि खखार भी बाहर न फेंक सके; (iv) स्नायु-मंडल की शिथिलता के कारण रोगी का पैरों को निश्चल न रख सकना और उन्हें चलाते रहना। इन सब अवस्थाओं में जिंकम लाभप्रद है।
(2) स्नायु-मंडल की शिथिलता और जीवनी-शक्ति में प्रतिक्रिया के अभाव के कारण दांत न निकलने, खसरा-चेचक आदि के दब जाने से डिलीरियम, मैनेंजाइटिस आदि रोग उत्पन्न हो जाना – कभी-कभी बच्चों के जब दांत नहीं निकल पाते, तो अन्दर-ही-अन्दर वे स्नायु-मंडल को उत्तेजित कर मस्तिष्क के रोग उत्पन्न कर देते हैं। बच्चे को तेज बुखार चढ़ जाता है, डिलीरियम तक हो जाता है। खसरा-चेचक आदि के दाने अगर न उभरें, अन्दर ही दब जायें, तब उसका भी मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ जाता है। डॉ० चौधरी अपनी ‘मैटीरिया मैडिका’ में एक बालक का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उसे बहुत तेज बुखार था, बुखार आदि के लक्षणों पर एकोनाइट, बेल आदि दिया गया, परन्तु रोग काबू में न आया। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध होम्योपैथ डॉ० मजूमदार को सलाह-मशवरे के लिये बुलाया। डॉ० मजूमदार ने बालक के रोग का सारा इतिहास सिलसिलेवार पूछा, तो पला चला कि जब उसे खसरा निकल रहा था, तब उसकी नर्स ने उसे स्नान करा दिया था, तब से दाने दब गये और बुखार चढ़ गया। रोगी बहुत कमजोर हो चुका था, फिर भी उसे जिंकम की तीन मात्राएँ दी गई। इनके देने से अन्दर छिपे दाने बाहर आ गये, परन्तु बालक अबतक इतना निर्बल हो चुका था कि बच न सका। जिंकम दब गये दानों को बाहर निकाल देता है और रोग भीतर-ही-भीतर रोगी को कचोटने के स्थान में बाहर आ जाता है। बाहर आ जाने पर अगर रोगी साध्य है, तो उसकी लक्षणानुसार अन्य औषधियों से चिकित्सा की जा सकती है। मैनेंजाइटिस में बच्चा सोते-सोते चीख उठता है, चौंक उठता है, इस में दाने दब जाने से मस्तिष्क की झिल्ली में सूजन आ जाती हैं जिसमें जिंकम लाभप्रद है।
(3) स्नायु-मंडल की शिथिलता और जीवनी-शक्ति में प्रतिक्रिया के अभाव के कारण युवावस्था आ जाने पर लड़कियों की माहवारी न होने से अंगों में फड़कन तथा हिस्टीरिया के लक्षण उत्पन्न हो जाना – जब कोई लड़की युवावस्था में आ जाती है, तब उसके रज:स्राव का समय होता है, परन्तु अगर किसी कारण रज:स्राव बन्द हो जाय, तो वह हिस्टीरिया के लक्षण प्रकट करने लगती है। उसके अंगों में फुदकन होने लगती है, गर्दन की पीठ में दर्द होने लगता है, मेरु-दंड में जलन होने लगती है, हाथ-पैर में कीड़ियां-सी चलने का अनुभव होने लगना है – भिन्न-भिन्न प्रकार के हिस्टीरिया के-से लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इन सब का कारण स्नायु-मंडल की शिथिलता और जीवनी-शक्ति में रोग को बाहर फेंकने की शक्ति का-प्रतिक्रिया का-अभाव है। जिंकम देने से जीवनी-शक्ति में शक्ति आ जाती है, वह रोग के प्रति प्रतिक्रिया करने लगती है, और दबी हुई माहवारी, जो जीवनी-शक्ति की कमजोरी के कारण होती है, खुलकर होने लगती है।
(4) स्नायु-मंडल की शिथिलता के कारण जीवनी-शक्ति की असीम निर्बलता-दमे आदि रोग में खखार का बाहर न निकाल सकना – इस औषधि का रोगी इतना कमजोर हो जाता है, उसका स्नायु-मंडल इतना शिथिल और उसकी जीवनी-शक्ति में प्रतिक्रिया करने का इतना अभाव हो जाता है कि दमे आदि रोग में वह खखार की बाहर भी नहीं निकाल सकता। जब खखार बाहर निकल आये तब उसे चैन पड़ता है। जैसा हमने माहवारी के विषय में लिखा, कमजोरी के कारण वह भी नहीं होती, रुकी रहती है, माहवारी का स्राव होने लगे, तो रोगिणी अच्छी हो जाती है, हिस्टीरिया के लक्षण नहीं रहते। उसी प्रकार दमे के रोगी में जब खखार को बाहर निकालने की शक्ति रोगी में न हो तो वह परेशान रहता है, खखार निकल आये तो तबियत ठीक रहती है। अगर स्नायु-मंडल की शिथिलता और प्रतिक्रिया के अभाव के कारण इस प्रकार की निर्बलता पायी जाय, तो जिंकम के व्यवहार से रोगी के स्नायु-मंडल को ताकत मिलती है और वह खखार को बाहर फेंक सकता है।
(5) पैरों को चलाते रहना – इस औषधि का एक खास और अद्भुत लक्षण यह है कि इतना निर्बल हो जाने पर भी रोगी दोनों टांगों को लगातार हिलाता रहता है, वह टांगों को स्थिर नहीं रख सकता। यह नहीं कि दुर्बल अवस्था में टांगों को लगातार हिलाते रहने में जिंकम औषधि है, अगर रोगी सबल भी हो, और टांगों को हिलाते रहने का लक्षण बड़ा प्रबल हो, तो इस औषधि को नहीं भुलाया जा सकता। रात को सोने पर भी रोगी घंटों टांगों को हिलाता रहता है। हाथ-पांव की गति पर उसका वश नहीं रहता। यदि यह अवस्था उचित औषधि से दूर न कर दी जाय, तो पक्षाघात हो सकता है।
(6) सारी रीढ़ में जलन तथा मेरु-दंड के रोग के लक्षण (Burning of spine and spinal symptoms) – रोगी की रीढ़ में जलन होती है, ऊपर से नीचे तक रीढ़ में जलन। यह जलन असली जलन नहीं होती, केवल रोगी को अनुभव होती है-Purely subjective-क्योंकि रोगी का रीढ़ का तापमान साधारण ही रहता है। जिंकम में मस्तिष्क तथा मेरु-दंड के लक्षणों की भरमार रहती है। मेरु-दंड की जलन, हाथ-पैर में कीड़ियो का-सा चलना, मेरु-दंड की उत्तेजना (Spinal irritation), शक्ति का अत्यन्त अभाव, कमर का दर्द, कमर को छूने से दर्द होता है, रोगी कमर को हाथ नहीं लगाने देता। चलने-फिरने से यह दर्द घट जाता है, बैठे रहने से बढ़ा रहता है। ये सब मेरु-दंड के रोग के लक्षण हैं, और इन में जिंकम से लाभ होता है।
(7) तकिये पर सिर को इधर-उधर फेरना – पक्षाघात की संभावना के लक्षण (Rolling of head from side to side) – डॉ कैन्ट लिखते हैं कि कभी कभी ऐसे रोगी से वास्ता पड़ जाता है जिसके लक्षण सूचित करते हैं कि उसे पक्षाघात होनेवाला है। रोगी को मस्तिष्क-संबंधी गंभीर रोग होता है। कई दिन तक तकिये पर पड़ा इधर-उधर सिर हिलाता है, शरीर क्षीण होता जाता है, मल-मूत्र अनायास बिस्तर में ही निकल जाता है, जीभ सूख जाती है, चमड़े की-सी लगती है, प्रतिदिन रोगी पहले दिन से ज्यादा बूढ़ा हो गया-ऐसा लगता है। एक हाथ या एक पैर का फालिज हो जाता है, ऐसा लगता है कि सारा शरीर फालिज से ग्रस्त है। रोगी दर्द से चिल्लाता है यद्यपि उसकी चीख एपिस जैसी तीव्र नहीं होती। इस समय रोगी को जिंकम देने से कभी-कभी उसका बुझता हुआ जीवन-दीप जग उठता है। औषधि देने के कुछ दिन बाद जिन अंगों में संवेदन नहीं था, जो गतिहीन पड़े थे, उनमें कंपन, स्फुरण होने लगता है, या रोगी को उन अंगों में पसीना आने लगता है। यह जीवनी-शक्ति के जागरण का लक्षण है, जीवनी-शक्ति की रोग प्रतिक्रिया का लक्षण है। देखनेवालों को ऐसा दीखता है कि रोगी चला, अब बचता नहीं क्योंकि रोग से लड़ने की जीवनी-शक्ति की जो यह प्रक्रिया चल पड़ती है, गतिहीन अंगों में फुदकन, स्फुरण, उनमें कांटों की-सी चुभन, कीड़ियों के रेंगने का-सा अनुभव-ये सब कष्ट रोगी को बर्दाश्त होते नहीं लगते, रिश्तेदार भी घबरा जाते हैं, परन्तु वास्तव में ये लक्षण जीवनी-शक्ति के रोग से लड़ने के लक्षण होते हैं। एक-दो सप्ताह तक इस प्रकार का कष्ट बना रह सकता है, और संभव है कि एक-दो सप्ताह के बाद फिर-से पक्षाघात के वापस लौटने के लक्षण दीख पड़ें। उस समय इस औषधि की दूसरी मात्रा देने का समय होता है। इस प्रकार के रोगी को जिंकम ही ठीक कर सकता है। तकिये पर इधर-उधर सिर डोलाना बेल और हेलेबोरस में भी पाया जाता है, परन्तु पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ जिंकम से ही होता है। डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि पक्षाघात के-से उक्त रोग में से निकलने के लिये उक्त प्रकार के कष्ट में से रोगी को गुजरना ही होगा, तभी वह नीरोग हो सकेगा।
(8) शराब न सह सकना – इस औषधि का एक मुख्य-लक्षण यह है कि रोगी किसी प्रकार की शराब को सहन नहीं कर सकता।
(9) टैरीजियम-Pterygium – आँख में नाक की तरफ के कोने से आँख की पुतली तक एक त्रिकोणाकार मांस की वृद्धि इस रोग में होती है। इस रोग को दूर करने में जिंकम प्रसिद्ध है।
(10) रोगी बैठकर और पीछे की ओर झुककर ही पेशाब कर सकता है – रोगी बैठकर, और बैठकर भी पीछे की ओर झुककर ही पेशाब कर सकता है।
(11) नक्स तथा जिंकम परस्पर-विरोधी हैं – कुछ लोग सामर्थ्य से अधिक काम करते हैं, उत्तेजनशील होते हैं। ये दोनों लक्षण नक्स तथा जिंकम में पाये जाते हैं, परन्तु जिंकम के पहले या बाद नक्स नहीं दिया जाना चाहिये।
जिंकम तथा इग्नेशिया – जैसा हमने ऊपर कहा, जिंकम के बाद नक्स नहीं देना चाहिये, परन्तु जिंकम के बाद इग्नेशिया अच्छा काम करता है।
जिंकम तथा क्यूप्रम – जब किसी वाह्म-कारण से किसी रोग के दाने दब जायें, तब क्यूप्रम दिया जाता है; जब जीवनी-शक्ति की कमजोरी के कारण दाने न निकले, शक्तिहीनता, दुर्बलता की वजह से न निकले, तब जिंकम दिया जाता है। सोरा-दोष के कारण-त्वचा के रोग के कारण-अगर दाने न निकलें, तब सल्फर दिया जाता है।
जिंकम तथा बैराइटा कार्ब – जो बालक या रोगी जन्म से स्नायु-शक्तिहीन हैं, जन्म से ही उनका मस्तिष्क दुर्बल है, उनके लिये जिंकम उपयुक्त औषधि नहीं है। उनके लिये बैराइटा कार्ब उपयुक्त औषधि है क्योंकि स्वभाव या जन्म से ही निर्बल-मस्तिष्क को शक्ति देने का क्षेत्र बैराइटा कार्ब का है।
जिंकम तथा सिमिसिफ़्यूगा – माहवारी के दर्द में इन दोनों के परस्पर-विरोधी लक्षण है। जिंकम में ज्यों ही माहवारी का रक्तस्राव शुरू होता है डिम्बकोशों में से दर्द हट जाता है, और ज्यों ही रक्त-स्राव बन्द हो जाता है, डिम्ब में दर्द फिर शुरू हो जाता है। सिमिसिफ़्यूगा में जिस समय रक्तस्राव हो रहा होता है तब हिस्टीरिया के तथा दर्द के लक्षण प्रकट होते हैं, जितना ही रक्तस्राव होता है, उतना ही दर्द भी बढ़ता है। लैकेसिस में रक्तस्राव के साथ जिंकम की तरह दर्द घट जाता है।
(12) शक्ति तथा प्रकृति – 6, 30, 200 (रोगी ‘सर्द’-प्रकृति का है)
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