लक्षण तथा मुख्य-रोग
(1) किसी अंग में भी शोथ, सूजन गुर्दा, आँख आदि; शोथ दायीं से बायीं तरफ आती है।
(2) शहद की मक्खी के डंक मारने जैसा दर्द और जलन
(3) प्यास न होना
(4) मानसिक-आधात से उत्पन्न रोग
(5) पहले, दूसरे या तीसरे महीने गर्भपात की आशंका
(6) ज्वर में शीतावस्था में कपड़ा उतार फेंकना और शीतावस्था में प्यास होना
(7) ज्वर में 3 बजे दोपहर सर्दी लगकर बुखार आना
लक्षणों में कमी
(i) ठंडी हवा, ठन्डे पानी से स्नान से रोग का कम होना
(ii) कपड़ा उतार देने से रोगी को अच्छा लगना
लक्षणों में वृद्धि
(i) गर्म कमरे में रोग में वृद्धि
(ii) आग के सेंक से रोग में वृद्धि होना
(iii) सोने की बाद वृद्धि
(iv) तीन से छ: बजे के बीच वृद्धि
(1) किसी अंग में शोथ, सूजन-गुर्दा, आँख आदि, शोथ दायीं से बायीं तरफ – एपिस मेल यह औषधि शहद की मक्खी के डंक से तैयार होती है। इसमें वे लक्षण पाये जाते हैं जो शहद की मक्खी के काटने से होते हैं। इस औषधि का पता 1847 में चला जब एक 12 वर्ष का बच्चा कई मास से शोथ-रोग से पीड़ित था और एलोपैथी तथा होम्योपैथी दोनों के इलाज से कोई लाभ न हुआ। जब इलाज से कोई फायदा न हुआ तब एक औरत ने कहा कि इसे शहद की मक्खियां मार कर उसका चूर्ण शहद में सुबह-शाम दो। ऐसा करने से उस लड़के का शोथ-रोग जाता रहा। इसके बाद डॉ० मारसी ने इस औषधि की परीक्षा होम्योपैथिक प्रणाली-प्रूविंग-से की, और इस औषधि का होम्योपैथी में प्रवेश हुआ। शोथ, सूजन इस औषधि का प्रमुख लक्षण है। यह शोथ संपूर्ण शरीर में भी हो सकती है, शरीर के भिन्न भिन्न अंगो में भी हो सकती है। सारे चेहरे की शोथ का लक्षण फॉस्फोरस में है।
गुर्दे पर प्रभाव – वैसे तो एपिस की शोथ सब अंगों में हो सकती हैं, परन्तु मुख्य तौर पर इसका प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है जिसके कारण शरीर में जहां जहां सेल्स हैं वहां-वहां पानी भर जाने के कारण शोथ हो जाती है। उदाहरणार्थ मुंह, जीभ, कनकौआ, आंख के पपोटे सब सूज जाते हैं।
आंख में निचली पलक एपिस में और ऊपर की पलक कैली कार्ब में सूजती है – आंख की सूजन में एपिस का विशेष लक्षण यह है कि आंख के नीचे की पलक सूज कर पानी के थैले जैसी हो जाती है। ऊपर की पलक के सूजन में कैली कार्ब दिया जाता हैं।
शोथ में एपिस, आर्सेनिक, ऐसेटिक ऐसिड और ऐपोसाइनम की तुलना – ऐपिस के शोथ में प्यास बिल्कुल नहीं रहतीं, आर्सेनिक में रोगी बार-बार, थोड़ा-थोड़ा पानी पीता है, और पानी की कय हो जाती है। यह कय एपिस में नहीं हैं। ऐपोसाइन में आर्सेनिक की तरह पानी और खाना उल्टी हो जाता है, परन्तु उसमें आर्सेनिक की बेचैनी और बार-बार प्यास की जगह अधिक होती है। ऐसेटिक ऐसिड में शोथ के साथ प्यास रहती है, परन्तु आर्सेनिक जैसी बार-बार की प्यास नहीं, साथ ही शोथ में दस्त और आंव की शिकायत रहती है। इस तुलना को इस प्रकार प्रकट किया जा सकता है।
एपिस – प्यास नहीं, उल्टी नहीं, ठंडक से आराम, गर्मी से रोग बढ़ता है।
आर्सेनिक – बार-बार प्यास, पानी उल्टी हो जाता है, बेचैनी होती है, गर्म सेक से आराम मिलता है।
ऐसेटिक ऐसिड – प्यास साधारण, दस्त और आंव की शिकायत रहती है।
ऐपोसाइनम – प्यास बहुत, पानी और खाने का उल्टी हो जाता है।
शोथ दायें से बायें को जाती है – एपिस के शोथ की दिशा दायीं से बायीं तरफ जाने की होती है। अगर मुख पर लाल-लाल फुन्सियों के रूप में शोथ उभर आये तो वह चेहरे के दायीं तरफ़ शुरू होगा, नाक पर के ऊपर से होकर चेहरे के बायीं तरफ चला जायगा। पेट में शोथ होगी तो दायीं तरफ से शुरू होगी, बायीं तरफ जायगी। डिम्बकोष का शोथ भी दायीं तरफ़ प्रारंभ होगा, जरायु का शोथ भी ऐसे ही दायीं तरफ से चलेगा। जलन, डंक मारने की-सी पीड़ा का प्रारंभ दायीं तरफ से शुरू होगा। जीभ सूजेगी तो उसका भी दायां भाग बायें की अपेक्षा अधिक सूजेगा।
(2) शहद की मक्खी के डंक मारने जैसा दर्द और जलन – शहद की मक्खी के काटने से जैसे शोथ हो जाता हैं, वैसे जहां काटा है वहां काटने का दर्द और जलन भी होती है। जलन में ठंडक से आराम मिलता ही है, इसलिये एपिस की शोथ में रोगी गर्मी सहन नहीं कर सकता, ठंडक चाहता है। आर्सेनिक की शोथ और जलन में रोगी गर्मी पसन्द करता है। एपिस की शोथ में रोगी ठंडा पानी लगाना पसन्द करता है।
डंक चुभने जैसा दर्द, सूजन, जलन और ठंडक से आराम-ये व्यापक लक्षण यदि पित्ती उछलना (Urticaria), चेचक, खसरा (Measles), कॅन्सर, डिम्बकोष की सूजन आदि किसी भी बीमारी में क्यों न पाये जायें एपिस मेल औषधि से इन लक्षणों में लाभ होगा।
बाहरी त्वचा पर छोटी-छोटी फुन्सियां – हम अभी शरीर की आन्तरिक झिल्लियों के प्रदाह के कारण रोगी के बार-बार चीख उठने का जिक्र करेंगे, परन्तु शरीर की बहारी त्वचा पर भी एपिस का प्रभाव है। शरीर पर छोटी-छोटी फुन्सियां हो जाती हैं जिन्हें अंग्रेजी में “रैश” कहते हैं। दीखने को न भी दीखें परन्तु त्वचा पर अंगुली फेरने से उन्हें अनुभव किया जा सकता है। शरीर में यहां-वहां गांटें पड़ जाती हैं, जो कभी प्रकट होती हैं कभी चली जाती हैं। मुख पर की त्वचा पर लाल-लाल पित्ती-सी उभर आती है और कभी-कभी शोथ का उग्र रूप धारण कर लेती हैं। इन लक्षणों में एपिस उपयोगी हैं। त्वचा के शोथ में जब अंगुली से दबाया जाता है तब त्वचा पर दबाने से गढ़ा पड़ जाता है।
रह-रह कर रोगी का चीख उठना – मस्तिष्क के रोग में रोगी बेहोशी में ऐसे चीख उठता है जैसे किसी ने डंक मार दिया हो। एपिस का जैसे शरीर की त्वचा पर शोथकारक प्रभाव है वैसे अन्त: शरीर की झिल्लियों पर जो मस्तिष्क, हृदय, पेट आदि का आवरण करती हैं उन पर भी शोथकारक प्रभाव है और इसीलिये इन अंगों के आन्तरिक-शोथ पर रोगी डंक मारने का-सा दर्द अनुभव कर चीख उठता है।
(3) प्यास न होना – एपिस के शोथ की बीमारी में प्यास नहीं लगती। जलन हो और प्यास न लगे-यह एक ‘विलक्षण-लक्षण’ है। शोथ की बीमारी में प्यास ऐसेटिक ऐसिड, आर्सेनिक तथा ऐपोसाइनम में लगती है और प्यास न लगने के कारण इन औषधियों से एपिस की पृथकता पहचानी जाती है।
(4) मानसिक-अघात से उत्पन्न रोग – भय, क्रोध, ईष्या, कुसमाचार आदि द्वारा मानसिक-आघात से उत्पन्न रोग में, विशेषकर इन मनोद्वेगों द्वारा शरीर के दायें भाग के पक्षाघात में इस औषधि का उपयोग होता है।
युवा का बच्चों की तरह बेमतलब बोलते जाना – गर्भवती स्त्री का गर्भ की अवस्था बढ़ जाने के बाद बच्चों की तरह बेमतलब निरर्थक बातें बोलते जाना, कभी-कभी कई स्त्रियों या कई रोगी यूं ही बेमतलब बड़बड़ाते हैं, जैसे बच्चे अकेले यूं ही कुछ-न-कुछ बड़बड़ाया करते हैं, वैसे निरर्थक बात बोलते जाने में एपिस मेल औषधि के विषय में सोचना चाहिये क्योंकि इसका भी मानसिक-कारण हो सकता है।
(5) पहले, दूसरे या तीसरे महीने गर्भपात की आशंका – गर्भवती स्त्री के पहले, दूसरे या तीसरे महीने अगर गर्भपात की आशंका हो, तो एपिस मेल औषधि इस खतरे को दूर कर देती है। कभी-कभी दुर्घटनावश या गर्भाशय की कमजोरी के कारण गर्भपात होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। यह औषधि ऐसे समयों में गर्भपात की प्रवृत्ति को रोक देती है।
(6) ज्वर में शीतावस्था में कपड़ा उतार फेंकना और शीतावस्था में प्यास लगना – इस औषधि का ‘विलक्षण-लक्षण’ यह हैं कि ज्वर में शीतावस्था में जब रोगी को कपड़ा से ढक लेना अच्छा लगना चाहिये तब वह सब कपड़े उतार फेंकता है, और शीतावस्था में जब उसे प्यास नहीं लगनी चाहिये तब प्यास लगती है।
(7) दोहपर 3 बजे सर्दी लगकर बुखार आना – ज्वर के संबंध में यह भी स्मरण रखने योग्य है कि रोगी को दोहपर 3 बजे सर्दी लगकर बुखार चढ़ता है। इस बुखार में ज्वर के जिस विलक्षण-लक्षण का हमने अभी उल्लेख किया उसे भी ध्यान में रखना उचित हैं। 3 से या 4 से 6 बजे तक ज्वर उग्र रूप धारण करता है। इस समय रोग की वृद्धि होती है।
एपिस मेल औषधि के अन्य लक्षण
(i) गर्मी से रोग में वृद्धि और ठंड से रोग को शान्ति इसके हर शोथ में पायी जाती है।
(ii) ज्वर में एपिस में शीतावस्था में हाथ-पैर गर्म रहते हैं, बेलाडोना में शीतावस्था में हाथ-पैर ठंडे रहते हैं।
(iii) नवजात-शिशु के मूत्र रुकने में एकोनाइट की तरह यह भी उपयोगी है।
(iv) एपिस में मल-द्वार जरा-सी हरकत करने से निकल पड़ता है, चुप पड़े रहने पर नहीं निकलता, फॉसफोरस में मल-द्वार से मल धीरे-धीरे चूता रहता है।
(v) अगर मधु-मक्खी काट ले तो उसका प्रतिकार एपिस से नहीं होता, कार्बोलिक ऐसिड से होता है। जब मधुमक्खियों के डसने पर रोगी जलन से और दर्द से छटपटा रहा हो, तब कार्बोलिक ऐसिड की एक मात्रा से वह कहने लगता है कि उसकी जलती हुई नस-नस में ठंडक का संचार हो गया। ततैय्ये के काटने पर आर्निका का मूल-अर्क लगा देने से सूजन नहीं होती, दो-तीन घंटे में दर्द भी जाता रहता है; मच्छरों के काटने पर कैन्थरिस 200 की एक मात्रा दे देने से जलन आदि कष्ट नहीं होते।
शक्ति का प्रकृति – शोथ-रोग में निम्न शक्ति 6 तक, अतिसार और आखों की बीमारी में 30 तथा ज्वर में 200 शक्ति। इसकी क्रिया धीरे-धीरे होती है इसलिये दवा जल्दी बदलनी नहीं चाहिये। औषधि ‘गर्म’ प्रकृति के लिये हैं।