परिचय : 1. इसे चक्रमर्द (संस्कृत), चकवड़-पंबाड़ (हिन्दी), चाबुका (बंगाली), टाकला (मराठी), कुवाडिपो (गुजराती), तधरे (तमिल), तगिरिसे (तेलुगु), कुल्व (अरबी) तथा कैसिआ टोरा (लैटिन) कहते हैं।
2. इसका पौधा 2-5 फुट ऊँचा, एक वर्ष तक रहनेवाला और दुर्गन्धित होता है। पत्ते तीन जोड़े फाँकों से युक्त 1-1 इंच लम्बे होते हैं, जो रात में आपस में मिल जाते हैं। फूल पीले रंग के होते हैं। फली पतली और 4-6 इंच लम्बी होती है। बीज 20-30 की संख्या में कत्थई रंग के होते हैं।
यह सम्पूर्ण भारत में, विशेषत: गरम प्रदेशों में होता है।
रासायनिक संघटन : इसके बीजों में क्राइसोफेनिक एसिड की तरह एक ग्लुकोसाइड होता है। पत्तों में कथार्टीन के समान एक रेचक तत्त्व, कुछ खनिज और रंजक द्रव्य मिलते हैं।
चकवड़ के गुण : यह स्वाद में कटु (बीज में), कुछ मीठा (पत्ती में), पचने पर कटु तथा हल्का, रूक्ष एवं गर्म होता है। इसका मुख्य प्रभाव त्वचा-ज्ञानेन्द्रिय पर कुष्ठध्न (अनेक चर्मरोग-नाशक) पड़ता है। यह मेदहर, विषनाशक, नाडीबलकारक, रेचक, कृमिनाशक, कफनि:सारक, हृदय-बलकारक तथा यकृत-उत्तेजक है।
प्रयोग : 1. सिध्मकुष्ठ : चकवड़ और राल का कांजी के साथ लेप करने से सिध्मकुष्ठ में लाभ होता है।
2. शिर:शूल : इसके बीजों को नीबू में पीसकर सिर-दर्द पर लगाना चाहिए। आध-शीशी के दर्द पर बीजों का नस्य भी लाभ करता है।
3. दाद : चकवड़ के बीज उसके मूल के स्वरस में पीसकर दाद पर लेप करने से तुरन्त लाभ होता है। इन्हें नीबू या दही में भी पीसकर लगा सकते हैं।
4. वातरोग : वातरोगों में सरसों के तेल में चकवड़ के पत्तों का शाक भुनकर खिलायें। लेकिन ध्यान रहे कि इसे अधिक खाने से दस्त होने लगते हैं।
5. शीघ्र-प्रसव : चकवड़ की जड़ पीसकर योनि में रखने से शीघ्र प्रसव हो जाता है।