मलेरिया-ज्वर को ‘विषम-ज्वर’, ‘जाड़े का बुखार’ तथा ‘अन्तरिया-ज्वर’ भी कहा जाता है । यह रोग ‘प्लाज्मोडियम’ (Plasmodium) नामक कीटाणुओं के कारण उत्पन्न हो जाता है, जो रक्त में प्रवेश पाकर उसे दूषित बना देता है । इन जीवाणुओं के प्रसार के कारण एक किस्म के मच्छर होते हैं। ये मच्छर जब मनुष्य को काटते हैं, तब उनके पेट में रक्त के साथ मलेरिया के जीवाणु भी चले जाते हैं। ये जीवाणु कुछ समय तक मच्छर के शरीर में रहते हैं, तत्पश्चात् वह मच्छर जब किसी अन्य स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तब वे उसके लालास्राव के साथ ही निकलकर स्वस्थ मनुष्य के शरीर में पहुँच कर उसके रक्त में मिल जाते हैं। ये रोगाणु रक्त में रहकर वृद्धि पाते हैं। इनके बढ़ जाने पर रक्त के लाल कणों में कमी आ जाती है, क्योंकि ये जीवाणु कई टुकड़ों में विभक्त होकर एक-एक पूर्ण जीवाणु के रूप में परिवर्तित होते रहते हैं, इस प्रकार इनकी संख्या बढ़ती ही चली जाती है। हमारे देश में पाये जाने वाले मलेरिया के जीवाणु तीन प्रकार के होते हैं तथा उनके कारण उत्पन्न होने वाले ज्वर भी मुख्यत: निम्न तीन प्रकार के होते हैं :-
(1) तृतीयक-ज्वर (Tertion Fever) – प्रति तीसरे दिन आने वाले ज्वर को ‘तृतीयक-ज्वर’ अथवा ‘तिजारी’ कहा जाता है ।
इसका एक भेद ‘घातक तृतीय-ज्वर’ (Malignant Tertion Fever) भी है। यह ज्वर भी हर तीसरे दिन आता है तथा इसका प्रकोप भयंकर होता है । कभी-कभी इस घातक-ज्वर का आने का कोई निश्चित समय भी नहीं रहता और यह एक दिन में कई-कई बार भी आ सकता है । ऐसे घातक-मलेरिया-ज्वर में रोगी कभी-कभी बेहोश भी हो जाता है ।
(2) चातुर्थिक-ज्वर (Quartan Fever) – प्रति चौथे दिन आने वाले मलेरिया ज्वर को ‘चातुर्थिक-ज्वर’ अथवा ‘चौथैया’ कहते हैं ।
(3) प्रतिदिन आने वाला ज्वर (Quotidian Fever) – इस प्रकार का ज्वर प्रतिदिन आया करता है ।
‘मलेरिया ज्वर के मूल कारण एक प्रकार के रोगाणु हैं, जो मच्छरों के द्वारा स्वस्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश पाते हैं :- यह बात बतायी जा चुकी है। यह ज्वर उन स्थानों पर अधिक फैलता है, जहाँ सीलन रहती है तथा पानी का निकास भली भाँति नहीं हो पाता । वर्षा ऋतु तथा शरद ऋतु में वह रोग अधिक फैलता है ।
प्राय: सभी प्रकार के मलेरिया-ज्वरों में जाड़े के कारण शरीर में कंपकंपी होती है, इसी कारण उसे ‘जाड़े का बुखार’ भी कहते हैं । ज्वर के चढ़ते समय रोगी के शरीर का तापमान बढ़ जाता है तथा उतरते समय पसीना निकलता है । परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि मलेरिया-ज्वर के चढ़ते समय शरीर में ठण्ड के कारण कंपकंपी हो ही । कभी-कभी बिना जाड़ा लगे ही ज्वर चढ़ आता है ।
सामान्यत: मनुष्य का तापमान 98.4 डिग्री फार्नहीट रहता है, परन्तु मलेरिया ज्वर में वह बढ़कर 104 या 105 डिग्री तक और कभी-कभी इससे भी अधिक हो जाता है । ज्वर के चढ़ते समय रोगी का जी मिचलाता है और कुछ को पित्त की वमन भी होती है । कोई-कोई रोगी कई-कई बार बमन करते हैं । सिर-दर्द के लक्षण भी प्रकट होते हैं ।
तृतीयक-मलेरिया में प्रति तीसरे दिन निश्चित समय पर ही ज्वर आता है। इसी प्रकार चातुर्थिक-मलेरिया में प्रति चौथे दिन निश्चित समय पर ही ज्वर चढ़ता है । परन्तु ‘घातक मलेरिया’ में ज्वर चढ़ने का कोई समय निश्चित नहीं होता । वह बार-बार चाहे जब आता रहता है । ‘घातक-मलेरिया-ज्वर’ में कुछ दिनों बाद रोगी के यकृत तथा प्लीहा में विकार उत्पन्न होकर, उनकी वृद्धि हो जाती है। रक्ताल्पता के लक्षण प्रकट होते हैं, शरीर दुर्बल हो जाता है तथा पेट बाहर को अधिक निकल आता है । ‘घातक मलेरिया-ज्वर’ न्युमोनिया, रक्ताल्पता, यकृत्-विकार अथवा तपैदिक के रूप में परिवर्तित होकर रोगी की मृत्यु का कारण भी बन सकता है । जिन स्थानों पर मच्छर अधिक हों अथवा मलेरिया ज्वर फैला हो या फैलने की आशंका हो, वहाँ रात के समय मच्छरदानी लगा कर सोना चाहिए तथा मच्छरों के विनाश के उपाय प्रयोग में लाने चाहिए । सीलन भरी, नम, अँधेरी तथा अस्वास्थ्यकर जगह में रहना वर्जित है।
स्मरणीय है कि यह रोग गरीब तथा दुर्बल रोगों को, जिनकी जीवनी-शक्ति कमजोर होती है। अधिक परेशान करता है ।