इस औषधि का यक्ष्मा रोग की चिकित्सा में सफलतापूर्वक उपयोग किया जा चुका है अर्थात इसके प्रयोग से यक्ष्माग्रस्त रोगी के बलगम की मात्रा घट जाती है, फेफड़ों में अधिक हवा जाने लगती है और बलगम में पीब का अंश घट जाता है। यह औषधि उन बूढ़ों के फेफड़ों की बीमारियों में बहुत लाभदायक है, जिन्हें नजले और जुकाम की पुरानी शिकायत रहती है, जिनके फेफड़ों में रक्तसंचार भली भांति नहीं हो पाता। रात को दम घुटने के दौरे पड़ते हैं, और खांसने में कठिनाई होती है, दांतों पर जमी हुई मैल उतरती है, बार-बार सर्दी-जुकाम होने की शिकायत रहती है।
सिर – रोगी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है, सिर में तेज दर्द रहता है, जो सिर की गहराई से उठता है, ऐसा लगता है, जैसे किसी ने सिर पर रस्सी बांधी हो। पलकों का छाजन व दाद ठीक हो जाता है।
पेट – आंत्र यक्ष्मा (tabes mesenterica), जलपान करने से पहले पतले दस्त, पेट में दर्द रहता है, दुसाध्य मलबद्धता (obstinate constipation) के साथ दुर्गन्धित हवा निकलती है।
दमा – तर दमा, नजले के कारण होने वाला श्वासकष्ट। श्वास नलियों में बुलबुले उठने की ध्वनि के साथ श्लेष्मा पूर्ण बलगम होता है। यहां पर इसे उपयोग में लाने का स्पष्ट संकेत रहता है।
चर्म – रूसी, दाद, त्वचा का एक विशेष रोग, इसमें बारीक कीलें निकलती हैं, उन पर कभी खुरण्ड नहीं जमते, ये बार-बार निकलती है, गर्दन की ग्रन्थियां बढ़ी हुई, पलकों का छाजन और स्पर्शकातर।
मात्रा – तीसवीं शक्ति के नीचे की शक्ति नहीं दी जानी चाहिए और न ही चार बार दोहरानी चाहिए। प्रतिसप्ताह एक मात्रा काफी है। यह औषधि अपना प्रभाव बहुत शीघ्र दिखलाती है, अन्यथा दोहराने की आवश्यकता नहीं होती।