विटामिन ‘पी’ की खोज विटामिन ‘सी’ से सम्बन्ध रखती है । वैज्ञानिकों ने देखा कि स्कर्वी रोग के कुछ रोगियों में एस्कार्विक एसिड से उतना लाभ नहीं हुआ, जितना नीबू के रस के प्रयोग से हुआ । इस तरह यह विचार किया गया कि नीबू में अवश्य कोई अतिरिक्त तत्त्व है जो विटामिन ‘सी’ से भिन्न है और यहीं से विटामिन ‘पी’ का इतिहास प्रारम्भ हुआ। सन् 1936 में नीबू के छिल्कों से निकले इस तत्त्व को ‘साइट्रिक’ नाम दिया गया । शरीर की रक्त कोशिकाओं की दीवालों के भेद्य गुण से इस विटामिन का विशेष सम्बन्ध है। अंग्रेजी भाषा में रक्त कोशिकाओं के इस गुण को Permeability कहते हैं । इस शब्द का प्रथम अक्षर P है, इसीलिए इस विटामिन का नाम भी ‘पी’ रखा गया ।
यह तत्व नीबू, नारंगी, सन्तरे तथा इसी तरह के अन्य फलों और उनके छिलकों में अतिरिक्त पाया जाता है। अभी तक केवल इतना ही ज्ञान हो सका है कि इस विटामिन का सम्बन्ध रक्त कोशिकाओं के भेद्य गुण से है । विटामिन ‘पी’ की कमी से रक्त कोशिकायें उतनी टूटती-फूटती तो नहीं हैं, अपितु उनकी भेद्य शक्ति बढ़ जाती है और इसी से त्वचा पर क्षरण होने के कारण होते हैं । इस विटामिन का प्रदाह प्रतिकारक प्रभाव भी होता है। यह शोथ को कम करता है और रोकता है। इसमें एलर्जी प्रतिकारक प्रभाव भी होता है ।
इसके उपयोग से कोई आश्चर्यजनक फल प्राप्त नहीं हुआ है । तब भी प्रदाह के परिणामस्वरूप उत्पन्न शोथ तथा एक्स-रे विकिरण से उत्पन्न एरीथिया के निराकरण के लिए यह आवश्यक है । अभी इस विषय में और खोज हो रही है ।