(1) प्रमेह (सुजाक ) की उत्कृष्ट-औषधि – सोरा-धातु के रोगी की यह दवा है। इसका काम ‘तन्तुओं’ में प्रविष्ट होकर उनका शोथ का देना है, इसलिये यह औषधि प्रमेह (गोनोरिया) के उन रोगियों के लिये हितकर है जिनका रोग ऐलोपैथी के इलाज से ठीक न होकर लम्बा पड़ गया हो। जब प्रमेह में मूत्रनली का शोथ बढ़ता चला जाय, ओर मूत्र-नली फोड़े की तरह कड़ी पड़ जाय, दबाने से दर्द हो, और इस नली के कड़ी पड़ते-पड़ते ऐसी स्थिति आ जाय कि नली का छेद बन्द-सा हो जाय, तब इस दवा के देने से पुराना बन्द-छेद आश्चर्यजनक रूप में खुल जायेगा और बन्द हो गया, सूख गया प्रमेह का स्राव फिर जारी हो जायगा, और दो-तीन महीने में प्रमेह का रोग भी चला जायगा।
(2) मूत्र-नली के बन्द हो जाने से मूत्राशय खाली नहीं हो पाता – प्रमेह में जब मूत्र-नली का ‘अवरोध’ या ‘संकोचन’ हो जाता है, तब मूत्राशय में भरा सारा-का-सारा पेशाब निकल नहीं पाता। रोगी पेशाब करने जाता है, उसे प्रतीत होता है कि अभी कुछ और बाकी है, परन्तु मूत्र-नली के संकोचन से वह निकलता नहीं, धीरे-धीरे बूंद-बूंद टपका करता है। मूत्र प्रारंभ होते समय भयंकर जलन होती है, पेशाब करते समय मूत्र-नली के संकुचित हो जाने के कारण उसमें रुका पेशाब जलन करता रहता है, पेशाब कर चुकने के बाद भी जलन जारी रहती है। मूत्र-नली से गाढ़ी पस निकलता है। प्रमेह की प्रथम अवस्था में जब शोथ अपने शिखर पर होती है, तब इस औषधि का समय नहीं होता, इस औषधि का प्रयोग उन रोगियों में ही होता है जो देर से लम्बे चले आते है, जिनमें रोगी प्रमेह के रोग से मुक्त नहीं हुआ होता, परन्तु उस बेचारे का रोग दबा दिया गया होता है।
(3) अंडकोश का शोथ (प्राय: दायीं तरफ का) – प्रमेह से अंडकोश का शोथ हो जाता है। जब प्रमेह के रोग को अनुपयुक्त उपचार से दबा दिया जाता है तब अंडकोश सूज जाता है, सूज कर पत्थर जैसा कड़ा हो जाता है। इस समय उसमें दर्द भी हुआ करता है। दर्द की अवस्था में पल्सेटिला से दर्द शान्त हो जाता है और अवरुद्ध हुआ प्रमेह का स्राव जारी हो जाता है। उस समय क्लेमैटिस अवशिष्ट रोग को ठीक कर देता है। अंडकोश में प्राय: दायीं तरफ इस औषधि का प्रभाव है। अण्डकोश की थैली का भी प्राय: दायीं तरफ का हिस्सा सूजता है।
(4) एक्जिमा – इसका एक्जिमा भी विचित्र है। अमावस्या के बाद एक्जिमा में से रस रिसता रहता है और पूर्णिमा के बाद वह खुश्क हो जाता है। एक्जिमा में खुजली मचती है, उसमें से रस निकलता है, ठंडे पानी से धोने से रोग बढ़ता है, बिस्तर की गर्मी से भी रोग में वृद्धि होती है।
(5) अकेले रहने से डरना परन्तु दूसरे के साथ से भी घबराना – इस औषधि का विचित्र मानसिक-लक्षण यह है कि रोगी अकेला रहने से भय खाता है, परन्तु अगर – कोई साथ रख दिया जाय तब भी किसी के साथ से घबराता है।
(6) शक्ति तथा प्रकृति – (3, 6, 30, 200) डॉ० नैश का कहना है कि मूत्र-नली के ‘अवरोध’ की प्रारंभिक-अवस्था में जब मूत्र का रुक-रुक कर आना शुरू हुआ हो किन्तु पूरा अवरोध न हुआ हो, अवरोध बन ही रहा हो, तब उच्च-शक्ति की मात्रा देने से अवरोध नहीं होने पाता। औषधि ‘सर्द’ प्रकृति के लिये है।