लक्षण तथा मुख्य-रोग | लक्षणों में कमी |
पैर की तरफ से पक्षाघात का ऊपर की तरफ चढ़ना (मस्तिष्क में सुन्नपन) | उपवास से अच्छा लगना |
किसी भी तरफ सिर फरने से चक्कर आ जाना | हाथ-पैर दबाने से आराम |
कामोत्तेजना न होना | अन्धकार में अच्छा लगना |
नेत्र-रोग न होने पर भी रोशनी को न सह सकना | लक्षणों में वृद्धि |
सोते हुए पसीना आना, जागते ही पसीना रुक जाना | सर्दी से रोग बढ़ना |
स्तन आदि किसी ग्रन्थि का कड़ा पड़ जाना (जैसे, कैंसर, ट्यूमर) | जबर्दस्ती की संयम से वृद्धि |
पेशाब रुक-रुक कर आना (प्रोस्टेट-ग्लैंड के रोग के कारण ऐसा होना) | विषय-विलास से वृद्धि |
रात को श्वास-नलिका के एक खास स्थान से खांसी उठना | चलायमान वस्तु को देखने से रोग में वृद्धि |
गले में गोले की तरह के एक पदार्थ का उठना (Globus hysterious) | सिर को दायें या बायें फेरने से रोगी को चक्कर आ जाना |
(1) पैर की तरफ से पक्षाघात का ऊपर की तरफ चढ़ना (मस्तिष्क में सुन्नपन) – कोनायम वह विषय है जिसका प्याला ग्रीस के दार्शनिक सुकरात को मृत्यु-दंड देने पर पीने के लिये दिया गया था। सुकरात ने जब इस विष को पिया, तो पहले उसके पांव सुन हो गये, धीरे-धीरे यह सुन्नपन पक्षाघात के रूप में परिणत हो गया। ज्यों-ज्यों विष का असर होता गया त्यों-त्यों उसका शरीर नीचे से ऊपर सुन्न होता गया। इस अर्से में उसकी बुद्धि ठीक काम करती रही। इस औषधि में पक्षाघात नीचे से ऊपर की तरफ जाता है। पहले नीचे के अंग काम करना छोड़ देते हैं, फिर क्रमश: नीचे से ऊपर की ओर पक्षाघात बढ़ता चला जाता है। इसमें मस्तिष्क में सुन्नपन पाया जाता है।
(2) किसी भी तरफ सिर फेरने से चक्कर का आना – इसका प्रमुख लक्षण सिर चकराना है, ऐसा चक्कर जो इधर या उधर सिर फेरने से फौरन आ जाता है। कोलोसिन्थिस का चक्कर तो सिर के बायीं तरफ से आता है, परन्तु इस औषधि का चक्कर सीधे मुंह आगे की तरफ चलने से तो नहीं आता, परन्तु इधर-या-उधर सिर फेरने से आ जाता है। बिस्तर में लेटे-लेटे भी अगर दायें पलटें या बायें पलटें, तब चक्कर आ जाता है, कई रोगी कह देते हैं कि बिस्तर में लेटने से चक्कर आ जाता है परन्तु असल में, उनका अभिप्राय होता है कि जब बिस्तर में लेटे होते हैं तब पासा पलटने से, चाहे दायें पलटें चाहे बायें पलटें, चक्कर आ जाता है। वृद्ध लोगों के चक्कर में भी यह उपयोगी है। किसी भी रोग में यह लक्षण पाया जाय, तो कोनायम से लाभ होता है।
(3) कामोत्तेजना न होना – इस औषधि का शरीर की ग्रन्थियों पर विशेष प्रभाव है। जननेन्द्रिय का भी क्योंकि इसका अण्डकोशों से सम्बन्ध है, इसलिये इसका जननेन्द्रिय पर प्रभाव असंदिग्ध है। इसके अतिरिक्त हम यह देख ही चुके हैं कि इसका पक्षाघात से भी सम्बन्ध है। स्नायु का सुन्न हो जाना, उसका दुर्बल हो जाना, अन्त में पक्षाघात में परिणत हो जाता है। इस दुर्बलता का अण्डकोशों की ग्रन्थियों पर प्रभाव पड़ने के कारण रोगी में जननेन्द्रिय की दुर्बलता पायी जाती है। यद्यपि रोग का चित्त चंचल होता है, काम-लालसा प्रबल होती है, तो भी जननांगों की शिथिलता के कारण वह लालसा को पूर्ण नहीं कर सकता। स्त्री का ध्यान करते ही उसका वीर्य स्खलित हो जाता है, उत्तेजना अपर्याप्त होती है, कुछ देर ही रहती है, और अपनी असमर्थता को देखकर रोगी निराश रहा करता है। इससे उसका चित्त खिन्न रहता है। उसे कुछ अच्छा नहीं लगता, वह चुप बैठा रहता है। हस्त-मैथुन की उसे लत पड़ जाती है।
जबर्दस्ती किये संयम का बुरा फल – कभी-कभी पुरुष या स्त्री मन में से काम की जड़ उखाड़ देने के स्थान में मन में तो कामचार के विचार को पकड़े रहते हैं, परन्तु जबर्दस्ती संयम का व्रत ले बैठते हैं। कई विधुरों तथा विधवाओं को जिन्हें सहवास का अभ्यास पड़ गया है, परिस्थितिवश संयम करना पड़ता है। शुद्ध-संयम से आत्म-शान्ति होनी चाहिये, परंतु जबर्दस्ती या परिस्थितिवश अपने को बांध लेने से मनुष्य का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, सुस्ती, कार्य में अनिच्छा तथा नपुंसकता आ जाती है। इस अवस्था को कोनायम दूर कर देता है और व्यक्ति स्वस्थ-मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगता है। अगर उक्त लक्षणों में सिर का चक्कर भी साथ हो, तब तो इस औषधि के निर्वाचन में कोई सन्देह नहीं रहता।
(4) नेत्र-रोग न होने पर भी रोशनी को न सह सकना – जो लोग कृत्रिम-प्रकाश में, बिजली की रोशनी में पढ़ा करते हैं, उन्हें नेत्र के किसी रोग के न होने पर भी दिन की रोशनी में कष्ट प्रतीत होता है। रात को आँख में दर्द होने लगता है, आँख के दबाने से आराम मिलता है। अन्धेरे कमरे में अच्छा लगता है। प्राय: विद्यार्थी रात को कृत्रिम-प्रकाश में पढ़ा करते हैं, उन्हें ऐसी तकलीफ हो जाया करती है। इस कष्ट को यह औषधि दूर कर देती है। डॉ० ऐलन इसी कारण इसे विद्यार्थियों की औषधि का नाम देते थे।
(5) सोते हुए पसीना आना, जागते ही रुक जाना – इसका एक-विलक्षण-लक्षण (Peculiar symptom) यह है कि रोगी को आँख मीचते ही पसीना आने लगता है, सोया नहीं कि पसीना आना शुरू हुआ और आँख खुलते ही पसीना बन्द हो जाता है। यह लक्षण अन्य किसी दवा में नहीं पाया जाता। इस लक्षण के ज्वर में भी यह औषधि गुण करती है। इसके विरुद्ध जागते ही पसीना आना शुरू हो जाना सैम्बकूस लक्षण है।
(6) स्तन आदि किसी ग्रन्थि का कड़ा पड़ जाना (जैसे कैंसर, ट्यमर) – इस औषधि का ग्रन्थियों पर विशेष प्रभाव है, इसलिये अगर शरीर में कोई ग्रन्थि सूज जाय, कड़ी पड़ जाय, तो इस औषधि की तरफ ध्यान जाना चाहिये। इसका स्त्री के स्तनों के कड़ा होने पर विशेष प्रभाव है, स्तनों के कड़ेपन को यह दूर कर देती है अगर हर बार रज:स्राव के समय दाहिना स्तन सूज जाय, कड़ा पड़ जाय, उसमें दर्द हो, तो कोनायम लाभप्रद है। बायां स्तन सूज जाय, तो साइलीशिया उपयोगी है। स्तन के कैंसर और ट्यूमर को भी इससे लाभ होता है। स्तन के अतिरिक्त, जरायु या पेट के कैंसर या ट्यूमर में भी इस औषधि को भुलाया नहीं जा सकता। कभी-कभी चोट लग जाने के कारण स्तन, जरायु या पेट का कैंसर या ट्यमूर हो जाता है। ये स्थान पत्थर की तरह कड़े पड़ जाते हैं, दर्द भी होता है। शरीर के किसी भाग की ग्रन्थि का पत्थर की तरह कड़ा पड़ जाना इसका लक्षण है।
(7) पेशाब रुक-रुक कर आना (प्रोस्टेट-ग्लैंड) – यह रोग भी ग्रन्थि से संबंध रखता है। प्रोस्टेट-ग्रन्थि के बढ़ जाने से रोगी को पेशाब रुक-रुक कर आता है। आते-आते रुक जाता है, फिर आने लगता है। अगर प्रोस्टेट-ग्लैंड के कारण न भी हो, परन्तु अगर मूत्र करने में रुक-रुक कर आने का लक्षण हो, तो कोनायम देना चाहिये।
(8) रात को श्वास-नलिका के एक खास स्थान से खांसी उठना – इस औषधि में दिन की खांसी नहीं आती, रात को खांसी उठती है वह भी श्वास नलिका के ऊपर के एक खास स्थान पर लगातार खराश होने लगती है, उसी से खांसी प्रारंभ होती है। बूढ़ों को यह बहुत परेशान करती है। श्लेष्मा बाहर निकलता नहीं, अन्दर ही निगल जाना पड़ता है। रात में लेटने से खांसी होती है, रोगी को उठ जाना पड़ता है। हायोसाइमस में भी रात को लेटने से खांसी शुरू हो जाती है और रोगी उठ बैठता हैं, परन्तु हायोसामस में ‘काक-जिव्हा’ (Uvula) के बढ़ जाने और लेटने पर उसके तालु को छूने से खराश पैदा होने से खांसी शुरू होती है, कोनायम में यह बात नहीं है। हिपर में भी खांसी है परन्तु वह कभी खुश्क नहीं होती, कफ ढीला होता है, कम होता है, हल्का बुखार भी हो जाता है। बेलाडोना की खांसी में श्वास-नलिका में दर्द होता है, साथ में बुखार होता है। लैकेसिस में श्वास-नलिका पर जरा-सा भी दबाव पड़े तो खांसी उठने लगती है क्योंकि यह औषधि स्पर्श को बर्दाश्त नहीं कर सकती। लैकेसिस का रोगी गले में गुलबन्द नहीं लपेट सकता, टाई तक नहीं बांध सकता क्योंकि इससे उसका गला रुंधने लगता है।
(9) गले में गोले की तरह के एक पदार्थ का उठना – हिस्टीरिया ग्रस्त स्त्रियों में, अपने रोग की परेशानी से, गोल की तरह का एक पदार्थ पेट में से उठकर गले में आकर अटकता है, उसे रोगिणी निगलने की कोशिश कर नीचे उतारने का यत्न करती है, वह उतरकर फिर ऊपर आ उठता है। यह गोला उठना इस औषधि के अतिरिक्त इग्नेशिया, ऐसाफेटिडा और वेलेरियन में भी पाया जाता है। जब किसी स्त्री को अपने शरीर की ग्रन्थियों का कड़ापन देखकर मायूसी होने गलती है, स्वास्थ्य की दृष्टि से भविष्य अन्धकारमय दीखने लगता है, तब इस प्रकार का गोला उठा करता है। स्त्री रोना चाहती है पर रोने को रोकने का प्रयत्न करती है, तब जैसे रोने को रोकने पर गला अवरुद्ध-सा हो जाता है, वैसा अनुभव इस गोले के गले में आकर अटकने तथा उसे निगलने का होता है। कोनायम में इसका मुख्य-कारण रोगी की अपने रोग के विषय में – कैसर, ट्यूमर, स्तनों का कड़ा पड़ जाना आदि देखकर-चिन्ता और निराशा है। इग्नेशिया में इस गोले के पेट से ऊपर चढ़ने का कारण कोई दु:ख, घर के किसी प्रिय की मृत्यु, प्रेमी का विछोह आदि होता है। ऐसाफेटिडा में यह गोला पेट के अफारे का परिणाम होता है।
(10) शक्ति तथा प्रकृति – 6, 30, 200 (औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है)