विवरण – इस रोग को ‘हृदयान्तर्वेष्टन-शोथ’ भी कहा जाता है । यह रोग नया तथा पुराना दो प्रकार का होता है ।
हृदय की अन्तस्थ-झिल्ली के नवीन-प्रदाह को ‘नया-प्रदाह’ कहते हैं। यह रोग गल-ग्रन्थि-प्रदाह, न्युमोनिया, चेचक, खसरा, डिफ्थीरिया एवं वात-रोग के फलस्वरूप होता है । सूजाक के परिणामस्वरूप भी यह बीमारी हो सकती है। किसी के मतानुसार यह रोग गल-ग्रन्थि के मार्ग से फैलता है और किसी के मत में इस बीमारी के फलस्वरूप ही गल-ग्रन्थि-प्रदाह होता है ।
नये रोग में हृत्पिण्ड के ऊपर सुई की नोंक से लेकर मटर के दाने तक के आकार के जख्म अथवा गोटियों जैसे उदभेद हो जाते हैं। इनसे थक्कों के रूप में रक्त अथवा सड़े हुए तन्तु निकल कर मस्तिष्क एवं मूत्र-पिण्ड के रक्त-संचरण में मिलकर बाधा उत्पन्न करते हैं । रोग की प्रथमावस्था में नाड़ी की अनियमितता एवं सामान्य-ज्वर के लक्षण प्रकट होते हैं । बाद में बीमारी के बढ़ जाने पर तीव्र-ज्वर, गहरी तन्द्रा, प्रलाप, पसीना, शरीर में स्थान-स्थान पर रक्तार्बुद निकलकर, रक्त के दौरे का रुक जाना आदि लक्षण परिलक्षित होते हैं ।
सामान्य प्रकार का रोग मारात्मक नहीं होता, परन्तु जो लोग पहले से ही दूषित-रोग के शिकार हों, उनके लिए यह बीमारी बहुत भयानक होती है ।
नये रोग की चिकित्सा
नये रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं :-
एकोनाइट 3x, 30 – रोग की प्रथमावस्था में ज्वर, प्यास, बेचैनी, छाती में सुई चुभने जैसा दर्द तथा मृत्यु-भय के लक्षणों में हितकर है।
विरेट्रम-विरिडि 6, 30 – मोटी तथा न लचकने वाली नाड़ियाँ और शिराएँ तथा तीव्र ज्वर के लक्षणों में । यदि रोग के लक्षण ‘एकोनाइट’ से भी प्रबल हों तो ‘एकोनाइट’ के बाद इसे देना बहुत लाभकर सिद्ध होता है ।
कोलचिकम 1x, 6 – वात के कारण उत्पन्न बीमारी में शारीरिक-क्षीणता एवं नाड़ी की दुर्बलता के लक्षणों में इसका प्रयोग करें।
आरम-मेट 6 – वात के कारण उत्पन्न रोग में यदि रोगी की मृत्यु हो तो इसे देना चाहिए।
ऐक्टिया रेसिमोसा 3, 30 – यदि वात तथा ताण्डव-रोग (कोरिया) के कारण यह बीमारी उत्पन्न हुई हो एवं हृदय में सुई गढ़ने जैसा दर्द, कलेजे में धड़कन, बेहोशी तथा नाड़ी अनियमित, तीव्र, दुर्बल एवं रुक-रुक कर चलने वाली हो तो – इस औषध के प्रयोग से लाभ होता है।
डिजिटेलिस 1x, 30 – रोग की प्रारम्भिक-अवस्था में इस औषध का प्रयोग नहीं करना चाहिए । बाद में, जब दुर्बल तीव्र तथा रुक-रुककर चलने वाली नाड़ी तथा श्वास-कष्ट एवं हृदय की गति बन्द हो जाने वाले लक्षण प्रतीत हों, तब इस औषध का प्रयोग करना हितकर रहता है ।
कैम्फर – यह भी ‘डिजिटेलिस’ की भाँति बलकारक है ।
कैक्टस Q, 3x – किसी कड़ी वस्तु द्वारा हृत्पिण्ड को दबाने जैसा अनुभव होने पर इसकी निम्न-शक्ति का प्रयोग हितकर सिद्ध होता है ।
स्पाइजीलिया 3x, 6, 30 – यह औषध रोग की नयी तथा पुरानी-दोनों अवस्थाओं में हितकर है। सुई की चुभन जैसा तीव्र दर्द, हृदय का अत्यधिक तेजी के साथ धड़कना-जिसकी आवाज को मरीज स्वयं भी सुन सके, बैठने तथा आगे झुकने से हृदय की धड़कन का बढ़ना और पीछे झुकने से घट जाना, गहरी साँस न ले पाना, साँस रोकने से भी कष्ट होना, बाईं करवट से न लेट सकना तथा हरकत से दर्द बढ़ना-इन लक्षणों में यह औषध हितकर है।
आयोडियम 30 – यदि वात के कारण रोग हुआ हो तथा ‘स्पाइजीलिया’ के प्रयोग से यथेष्ट से लाभ होता दिखायी न दे तो इस औषध को देना हितकर रहता है।
कैल्मिया 6 – बाहरी लेपों के कारण वात-व्याधि का इलाज किये जाने पर उसके अन्तर्मुखी हो जाने से, जब हृदय के रोग के लक्षण प्रकट हों, गठिया के दब जाने पर हृदय रोग तथा हृदय-रोग के दब जाने पर गठिया के लक्षण प्रकट होते हों, नाड़ी की गति अत्यन्त धीमी, श्वास-कष्ट, ज्वर, हृदय-प्रदेश में असह्य-कष्ट के दौरे पड़ना एवं हृदय का जोर-जोर से धड़कना-इन लक्षणों में रहने पर यह औषध लाभ करती हैं।
लैकेसिस 30 – डॉ० नैश के मतानुसार नये अथवा पुराने हृदय-रोग में यह औषध बहुत लाभ करती है । हृदय के ऊपरी भाग में धड़कन जैसा दर्द, जिसके कारण घबराहट शुरू हो जाना, गला घुटना, खाँसी, किसी भी अंग पर संकोच के दबाव का सहन न कर पाना, होंठ तथा शरीर का नीला पड़ जाना, कण्ठ, पाकाशय तथा उदर में स्पर्श-असहिष्णुता एवं नींद के बाद रोग का बढ़ जाना-इन लक्षणों में यह औषध हितकर है ।
पुराने रोग की चिकित्सा
हृद्-कपाट की बनावट अथवा अवस्थिति में स्थायी परिवर्तन हो जाने को ‘पुराना हृदयान्तर्वेष्टन-प्रदाह’ कहा जाता है । यह रोग ‘नये हृदयान्तर्वेष्टन-प्रदाह’ के कारण भी उत्पन्न होता है तथा स्वतंत्र रूप से भी प्रकट हो सकता है । अत्यधिक शराब पीना, बहु-प्रसव, गठिया, उपदंश, मूत्रग्रन्थि-प्रदाह एवं धमनियों में कड़ापन आदि कारणों से भी यह रोग हो सकता है। युवावस्था अथवा प्रौढ़ावस्था में ही यह बीमारी अधिक पायी जाती है। वैसे यह किसी भी आयु के मनुष्य को हो सकती है।
इस बीमारी में हृद्कपाट में जख्म हो जाना, कपाटों (Valve) का भली-भाँति बन्द न होना अथवा कपाट की बन्धनियों का छोटा हो जाना आदि विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके कारण हृत्पिण्ड को अत्यधिक कार्य करके रक्त-संचालन की क्रिया को पूरा करना पड़ता है, फलत: हृद्पेशी की वृद्धि भी हो जाती है।
हृद्-कपाट, महाधमनी, फुफ्फसीय-धमनी की शीर्णता आदि की विकृतियाँ इस रोग में प्रकट होती हैं । ये सब बीमारियाँ एक साथ अथवा दो-तीन की संख्या में भी हो सकती हैं । इस रोग में हृत्पिण्ड के दाँयें अंश का प्रसारित हो जाना, सभी जगह संकोचन के समय ‘मर-मर’ शब्द सुनायी देना आदि उपसर्ग प्रकट होते हैं तथा रक्त-संचरण में कमी या यक्ष्मा रोग के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है।
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं :-
एकोनाइट 30, 200 – रोग की प्रथमावस्था में बेचैनी, प्यास आदि के लक्षण विद्यमान रहने पर इसका प्रयोग करें ।
आर्निका 30, 200 – यदि अत्यधिक परिश्रम अथवा चोट के कारण रोग हुआ हो तो इसका प्रयोग करें ।
आर्सेनिक 30, 200 – प्यास, जलन, बेचैनी, शोथ आदि के लक्षणों में यह हितकर है ।
ऐपिस 3, 200 – हृत्पिण्ड के कपाटों की बीमारी के कारण शोथ, सम्पूर्ण शरीर का नीला पड़ जाना तथा डंक मारने जैसे दर्द के लक्षणों में हितकर है ।
डिजिटेलिस Q, 200 – शोथ तथा हिलने-डुलने पर हृदय-क्रिया के बन्द हो जाने जैसे लक्षणों में ।
कैम्फर – हृत्पिण्ड की क्रिया के बन्द हो जाने जैसे लक्षण में – इसे 2 से 5 बूंद तक की मात्रा में 10-10 मिनट के अन्तर से प्रयोग में लाना चाहिए ।
नैजा 6 – यदि किसी संक्रामक-रोग के बाद यह रोग हुआ हो तथा हृदय के ऊपर बोझ का अनुभव एवं घबराहट के लक्षण हों तो इसका प्रयोग करें। इसे प्रति 4 घण्टे बाद देना चाहिए ।
लैकेसिस – यह भी ‘नैजा’ के भाँति ही उपयोगी है ।
जिन रोगों के कारण हृत्पिण्ड की बीमारियाँ हो सकती हैं, उन पर सावधानी से निगाह रखनी चाहिए । हृदय-रोग का आक्रमण हो जाने पर रोगी को पूर्ण-रूप से शारीरिक तथा मानसिक-विश्राम देना चाहिए । मिचली के लक्षण दिखायी देने पर आँखें बन्द करके बिस्तर पर चुपचाप लेटे रहना चाहिए। मैथुन, मद्यपान तथा गरिष्ठ भोजन आदि वर्जित है । शोथ का लक्षण न होने पर तरल एवं पुष्टिकर भोजन करना चाहिए ।