यह रोगोत्पाद सूक्ष्म जीवों का विकास रोकती हैं तथा उन्हें नष्ट करती है, सशक्त विसंक्रामक तथा दुर्गन्ध नाशक औषधि है, यह औषधि दुर्दम अर्बुदों के अन्दर होने वाली विशिष्ट विनाशक प्रक्रिया को रोक कर उनके आस-पास स्थित ऊत्तक को अक्षुण्ण (uncharted) तथा अपरिवर्तित ही छोड़ देती है।
गरम पानी में इस औषधि को डालकर भाप लेने से खांसी, यक्ष्मा तथा ऊर्ध्व वायुमर्गो के प्रतिश्यायी रोगियों को बहुत लाभ होता है। फामैल्डिहाइट के 20 प्रतिशत घोल में तर की हुई रुई को कुछ घन्टे तक चमड़ी पर लगाये रखने से परिगलित विशल्कन (necrotic slough) उत्पन्न हो जाता है, दुबारा इसी तरह की तर रुई लगने से पहले पपड़ी को हटा देना चाहिए ।
रोगी का उपचार करने से पहले निम्न लक्षणों की ठीक से जांच कर लेनी आवश्यक है।
आमाशय – भोजन खाने के बाद ऐसा लगता है जैसे आमाशय के अन्दर गेंद रखी हुई है। मुँह और आमाशय के अन्दर जलन रहती है।
मुँह – स्वाद का लोप, लारस्राव, गाढ़ी लार।
मन – अधीरता, मूर्च्छा, भुलक्कड़।
उदर – पाखाना पानी जैसा, मलत्याग की तीव्र इच्छा।
मूत्र – मूत्ररोध, अन्नसारिक मूत्र।
सिर – आँखों से पानी बहना, चक्कर, नजला।
श्वास – स्वरयंत्र का आक्षेप, श्वास कष्ट, काली खांसी।
चर्म – नम पसीना जो ऊपरी दाईं अंगों पर अधिक होता है। घाव के आस-पास छाजन, त्वचा चमड़े के समान दरारयुक्त रहती है, झुर्रियां पड़ जाती है, पपडियां झड़ती है।
ज्वर – दोपहर से पहले शीत का प्रकोप तदुपरांत दीर्घकालीन ज्वर। ज्वर काल में हड्डियों में दर्द रहता है, ज्वर के दौरान रोगी को होश नहीं रहता की वह कहाँ है।
सम्बन्ध – यूरोट्रोपिन, सिस्टोजन।
मात्रा – श्वास सम्बन्धी रोगों में गरम पानी में मिलाकर भाप देना चाहिए। 3x शक्ति छिड़काव के लिए 1 %।