रक्त के दबाव को ‘रक्तचाप’ अथवा ‘ब्लड-प्रेशर’ कहा जाता है । यह घटा हुआ भी हो सकता है और बढ़ा हुआ भी। घटे हुए रक्तचाप को ‘लो-ब्लड-प्रेशर’ तथा बढ़े हुए रक्तचाप को ‘हाई-ब्लड-प्रेशर’ कहा जाता है ।
हृदय तो शिराओं द्वारा लाये गए अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके धमनियों में फेंकता है और धमनियाँ उसे छोटी-बड़ी ‘कोशिकाओं’ के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में पहुँचा देती हैं। इस प्रकार हृदय को रक्त-ग्रहण करने तथा फेंकने के दोनों कार्य करने पड़ते हैं। रक्त को ग्रहण करते समय हृदय फैलता है तथा फेंकते समय संकुचित होता है । इन दोनों क्रियाओं को क्रमश: ‘हृद-संकोचन’ तथा ‘हृद्-प्रसारण’ कहते हैं । ‘हृद्-संकोचन’ तथा ‘हृद्-प्रसारण’ ये दोनों ही क्रियाएं ‘रक्तचाप’ की सीमा में आती हैं ।
सामान्यतः ‘हृद्-संकोचन’ का दबाव 120 हो तो ‘हृद्-प्रसारण’ का दबाव 80 होना उचित है । चालीस वर्ष के युवा-व्यक्तियों में उसे संकोचन अथवा प्रसारण का दबाव यदि इससे कम होता है तो उसे ‘हाई-ब्लड-प्रेशर’ कहा जाता है । ‘संकोचन’ अथवा ‘प्रसारण’ के दबाव में यह आनुपातिक-अन्तर कम या अधिक भी हो जाता है। एक ही आयु के स्वस्थ एवं अस्वस्थ व्यक्तियों का रक्त-चाप भिन्न-भिन्न हो सकता है । इतना ही नहीं, एक ही व्यक्ति के रक्तचाप में भी विभिन्न समयों पर विभिन्न अन्तर देखने को मिल जाता है ।
40 वर्ष बाद की आयु में, ‘संकोचन’ का दबाव 135 तथा प्रसारण का दबाव लगभग 65 माना जाता है तथा वृद्धावस्था में 150 एवं 90 भी हो सकता है। विभिन्न स्थानों की ऊँचाई, अलग-अलग आयु, भोजन तथा मानसिक अवस्थाओं के अन्तर से भी रक्त के दबाव में घट-बढ़ हो सकती है । ‘रक्तचाप’ के नापने का एक यन्त्र भी आता है, जिसके द्वारा किस व्यक्ति का रक्तचाप उस समय क्या है, इसे सरलतापूर्वक जाना जा सकता है ।
लो-ब्लड-प्रेशर के लक्षण – नब्ज का तीव्र तथा धागे की भाँति पतली होना, चक्कर आना, सिर-दर्द तथा कभी-कभी दिल का बैठता हुआ-सा प्रतीत होना। सिर-दर्द, सिर में चक्कर आना तथा माथे में भार का अनुभव – ये लक्षण दोनों प्रकार के ब्लडप्रेशर में पाये जाते हैं।
रोग का कारण – अत्यधिक मानसिक-परिश्रम करना, परन्तु उसके अनुपात में शारीरिक-परिश्रम न करना, पाचन-क्रिया में गड़बड़ी, कब्ज, यकृत-दोष, चिन्ता, परेशानी, मानसिक-कष्ट, अधिक खाना, अत्यधिक शराब पीना, धूम्रपान, अधिक सहवास, मूत्र-ग्रन्थि एवं हृत्पिण्ड की बीमारी आदि कारणों से यह रोग होता है । अधिक आयु में शिराओं में कड़ापन तथा उनके फैलने की शक्ति का घट जाना एवं स्त्रियों को रजोनिवृति-काल (40 से 50 वर्ष की आयु के बीच) में तथा स्राव-हीन ग्रन्थियों की क्रिया में गड़बड़ी हो जाने पर भी यह रोग हो सकता है । सामान्यत: धनी, अधिक मानसिक परिश्रम करने वाले और कम शारीरिक परिश्रम करने वाले, चिन्ताशील, वृद्ध पुरुषों तथा रजोनिवृत्ति काल में स्त्रियों को यह बीमारी होती है ।
‘लो ब्लड-प्रेशर’ में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर हैं :-
कोनियम 200 – वृद्धावस्था में रक्त की कमी के कारण सब अंगों की कमजोरी, मस्तिष्क में रक्त न पहुँचने के कारण चक्कर आना, ग्लैण्ड्स के सूखने के कारण शारीरिक क्षीणता आदि लक्षण प्रकट होते हैं । इन्हीं के कारण लो ब्लड-प्रेशर भी हो जाता है । वृद्ध मनुष्यों के लो ब्लड-प्रेशर की यह उत्तम औषध है ।
डिजिटेलिस 3 – नाड़ी का कमजोर, अनियमित तथा अत्यधिक धीमा होना, शरीर में कहीं-कहीं शोथ, गहरी श्वास लेने की इक्छा का बने रहना, जरा सी हरकत से ही कमजोर नाड़ी का तेजी के साथ चलने लगना – इन लक्षणों वाले ‘लो-ब्लड-प्रेशर’ में यह औषध लाभ करती है ।
कैल्मिया 6 – अत्यन्त धीमी नाड़ी, किसी तेज हरकत अथवा जीने पर उतरते-चढ़ते समय दिल में धड़कन और घबराहट उत्पन्न हो जाना, श्वास का तेजी से चलना तथा रोगी का हांफने लगना, वात-रोग की पीड़ा तथा रोग के मूल में उपदंश का विष होने के लक्षणों वाले लो-ब्लड-प्रेशर में यह औषध लाभ करती है ।
जेल्सीमियम 1, 3, 30 – सिर की गुद्दी से चक्कर उठना, सिर तथा आँखों की पलकों में भारीपन, कनपटियों में चलने वाले दर्द का कान तथा नाक तक जा पहुँचना, भय अथवा उत्तेजनापूर्ण समाचार आदि के किसी उद्वेग के कारण कोई शारीरिक रोग हो जाना, सुस्ती, लापरवाही, आलस्य, नाड़ी में धीमापन तथा जरा-सी हरकत से ही उसका तेज हो जाना – इन लक्षणों वाले लो-ब्लड-प्रेशर में यह औषध लाभ करती हैं ।
कैल्केरिंया-फॉस 3x, 30 – शक्तिहीन, सत्वहीन, थके हुए तथा ऐसे युवक, जो अधिक तेजी से लम्बे हुए चले जा रहे हों, के ‘लो-ब्लड-प्रेशर’ में हितकर हैं ।
ऐबिस-नाइग्रा 30, 200 – डॉ० बोरिक के मतानुसार हृदय की गति का मन्द होना, चित्त का गिरा-गिरा रहना, हाँफना तथा खाना खाने के बाद तबियत का बिगड़ जाना-इन लक्षणों वाले लो-ब्लड-प्रेशर में यह औषध लाभ करती है ।
रेडियम 12x, 30 – चक्कर आना, सम्पूर्ण शरीर में दर्द, सिर के पीछे तथा सिर की चोटी पर भारीपन, बेचैनी एवं चलने-फिरने से आराम का अनुभव होना-इन लक्षणों वाले ‘लो-ब्लड-प्रेशर’ में हितकर है ।
ऐवाइना-सैटाइवा Q – यह औषध मस्तिष्क को ताकत देती तथा लो-ब्लड-प्रेशर में हितकर है । इसके मूल-अर्क को 10-10 बूंद की मात्रा में, दिन में 3-4 बार लेना चाहिए ।
कैक्टस ग्लैण्डी फ्लोरस Q, 3 – चित्त की खिन्नता, उदासी, चुपचाप पड़े रहना, परेशान रहना, मिजाज बिगड़ा हुआ, खाने का समय निकल जाने पर सिर में दर्द होने लगना, सिर के चिमटे से जकड़े होने जैसी अनुभूति – इन लक्षणों वाले लो-ब्लड-प्रेशर में उपयोग करें।
क्रेटेगस Q – यह औषध ‘लो’ तथा ‘हाई’ दोनों प्रकार के ब्लड-प्रेशर में उपयोगी हैं । हृदय के कष्ट को सामयिक रूप में दूर करने के लिए इस पर अधिक निर्भर रहा जा सकता है ।