विवरण – हृदय स्वयं में एक पेशी है। इसकी सूजन को ‘हृदपेशी-प्रदाह’ कहा जाता है । हृदयावरक ऊपरी-झिल्ली अथवा भीतरी-झिल्ली की सूजन के कारण यह बीमारी हो सकती है । डिफ्थीरिया, उपदंश, टाइफाइड, मूत्राशय का शोथ तथा वातरोग आदि अन्य घातक कारणों से भी यह रोग हो जाता है ।
थोड़ा-सा श्रम करने पर ही हाँफने लगना, श्वास-कष्ट, कलेजे में धड़कन, हृदय में दर्द, बेचैनी, हाथ-पाँव अथवा नाक के अग्रभाग में ठण्डक, हाथ-पाँव अथवा शरीर की गाँठों में शोथ, पेशाब का परिमाण घट जाना, नाड़ी की गति में क्षीणता तथा किसी अंग में कम और किसी में अधिक रक्त दिखायी देना-ये लक्षण इस रोग में प्रकट होते हैं । इस रोग में रोग-निर्वाचन से पूर्व ही अचानक मृत्यु हो जाना सम्भव हो सकता है। इसमें लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियां हितकर सिद्ध होती हैं :-
ऐरोमैटिक स्पिरिट्स ऑफ अमोनिया – डॉ० हैलेन के मतानुसार इस औषध को 1-1 घण्टे के अन्तर से 10 बूंद की मात्रा में सेवन करने से लाभ होता है ।
ब्रायोनिया 6, 200 – हिलने-डुलने पर प्रदाह का बढ़ना तथा वात-ज्वर, टाइफाइड आदि का पूर्व इतिहास पाये जाने पर इसका प्रयोग लाभकर सिद्ध होता है।
डिजिटेलिस Q – इस औषध के ताजा ‘मूल-अर्क’ को 5-10 बूंद की मात्रा में देने से हृदय-कष्ट सामयिक (अस्थायी) रूप में शान्त हो जाता है ।
फास्फोरस 30 – डॉ० फैरिंगटन के मतानुसार हृदय में शिराओं का रक्त जमा हो जाने पर इसका प्रयोग करने से विशेष लाभ होता है । किसी भी कारण से होने वाली हृदय की धड़कन में यह औषध लाभ करती है।