[ नील और कैलाबार नदी के मुहाने के पास एक प्रकार की लता होती है, जिसकी फुनगी को पीसकर इसका टिंचर तैयार किया जाता है ] – यह स्ट्रिकनिया के समान एक विषैला पदार्थ है ; और मेरुदण्ड के भीतर से विष क्रिया उत्पादन करके सारे शरीर में, हृत्पिण्ड के नाड़ी-मण्डल ( गैंगलिया ) में और फेफड़े में पक्षाघात उत्पन्न करती है, जिससे मृत्यु हो जाती है, किन्तु चेतनता और स्पर्श-अनुभव करने की शक्ति प्रायः मृत्यु के समय तक ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। आंख की पुतली संकुचित हो जाना, आइरिस की पेशी संकुचित होना, पलकों का फड़कना और बार-बार गिरना, पेशियों की एक प्रकार की विभिन्न अवश्था हो जाना, जिससे मूत्राशय, पाकस्थली, आँत इत्यादि से लगातार स्राव निकला करना। आँत से आँत लिपटकर गाँठ पड़ जाना। सब तरह के स्राव – खासकर आँख से पानी गिरना और लार का स्राव बहुत बढ़ जाना, हृदय का स्पन्दन बढ़ जाना।
स्पाइनल इरिटेशन ( मेरुदण्ड की उत्तेजना ) – इस बीमारी के लक्षण में पीठ, दोनों कंधों के बीच, गर्दन और कमर में दर्द होना, हिलने-डुलने से दर्द बढ़ना, मेरुदण्ड को दबाने से फोड़े जैसा दर्द होना, गरम सेंक से भी दर्द बढ़ना, कभी-कभी मेरुदण्ड की हड्डी में खूब भीतर की ओर भी दर्द होना। इस तरह के दर्द के साथ हरवक्त एक तरह का स्नायुशूल का सा दर्द बना रहता है, जो शरीर के अन्य स्थानों में भी फैल जाता है। उठने-बैठने, चलने-फिरने और लिखने व सिलाई करने में तकलीफ होना। शीघ्र ही उक्त दर्द बढ़ जाना और उसके साथ कोरिया के समान स्पंदन, हिचकी, डकार, जी मिचलाना, कलेजा धड़कना, श्वासकष्ट, आक्षेपिक खाँसी, बार-बार पेशाब लगना, अंग सुन्न पड़ जाना, हाथ-पैर ठण्डे होना इत्यादि कितने ही उपसर्ग प्रकट होते हैं। स्पाइनल इरिटेशन गर्दन में हो तो छाती और माथे में दर्द, पीठ में हो तो – पंजरस्थि के भीतर का स्नायुशूल पाकाशय का शूल, मिचली, वमन, इत्यादि, और कमर में हो तो तलपेट और निम्नांग में कितनी ही बीमारियां पैदा हो जाया करती हैं। इस बीमारी में साधारणतः – नक्स, बेलाडोना, रस टॉक्स, टैरेंटुला, फॉस, फाइसोस्टिग्मा इत्यादि दवाएँ उपयोग होती हैं।
नक्स में – एकाएक एक दिन रोगी को सवेरे ही ऐसा मालूम होता है कि उसके शरीर में बिलकुल ही ताकत नहीं है।
हाथ-पैर सुन्न, घटने कड़े और अकड़े हुए, कमर में ऐसा लगना जैसे खूब कसकर कपडा बांधा हुआ हो या कमर पेटी से बंधी हुई सी मालूम होना, मेरुदण्ड और अंगों में इस तरह की सुरसुरी होना जैसे वहां कीड़ा रेंग रहा हो।
फॉस्फोरस के लक्षण – बहुत कुछ नक्स के समान ही होते हैं। सिर्फ इतना फर्क है कि फॉस्फोरस की बीमारी की गति सम्पूर्ण पक्षाघात की ओर रहती है, और नक्स में रोग आंशिक पक्षाघात की ओर अग्रसर होता है।
फाइसोस्टिग्मा में – मेरुदण्ड के प्रत्येक स्नायु में उपदाह होता है। मेरुदण्ड के हड्डियों बीच में दबाने से रोगी बेचैन हो जाता है, इसमें मस्तिष्क झिल्ली में उपदाह की वजह से पेशियाँ कड़ी पड़ती जाती हैं ; और अंत में बीमारी धनुष्टंकार में परिणत हो जाती है। इसके सिवा – मेरुदण्ड में जलन, झुनझुनी, हाथ-पैर में तथा अन्य अंगों का सुन्न होते जाना, हाथ में ऐंठन, नींद के समय एकाएक हाथ-पैर में झटका देकर खिंचाव की सी कड़क उठना, कमर जकड जाना इत्यादि फाइसोस्टिग्मा के लक्षण हैं।
स्पाइनल पैरालिसिस ( मेरूदण्डीय पक्षाघात ) – इस बीमारी में स्ट्रिकनिया के लक्षणों के साथ फाइसोस्टिग्मा की बहुत कुछ समानता है। गले के भीतर संकोचन ( constriction ), पाकस्थली और आंतों में आक्षेप, मलद्वार में वेग और कूथन, पैर और मेरुदण्ड में कड़ापन और जकड़ने का भाव, चक्षुतारा में खिंचाव इत्यादि लक्षण – स्ट्रिकनिया और फाइसोस्टिग्मा दोनों में ही है। इसके सिवा बहुत कमजोरी और हाथ पैर में कँपकँपी की वजह से चल न सकना, पेशियों का इच्छानुसार काम न करना इत्यादि लक्षण – फाइसोस्टिग्मा की तरह जेलसिमियम और कोनियम में भी है पर स्ट्रिकनिया के साथ इतना भेद है की स्ट्रिकनिया में अगर मृत्यु हो तो, श्वासयंत्र की पेशी में धनुष्टंकार का आक्षेप होने से साँस बन्द होकर मृत्यु होती है ; और फाइसोस्टिग्मा में श्वासयंत्र के पक्षाघात के कारण मृत्यु होती है।
स्ट्रिकनिया में – आँख की पुतली फ़ैल जाती है ; और फाइसोस्टिग्मा मे संकुचित हो रहती है।
फाइसोस्टिग्मा – निम्न शक्ति उपयोग करने से नर्तन-रोग और पैरालिसिस एजिटैन्स ( सकम्प पक्षाघात ) की बीमारी आरोग्य होती है।
आँख की बीमारी – दूर की चीज कुछ भी दिखाई नहीं देना, आँख के बिलकुल पास आए बिना पास की चीज भी नजर नहीं आना ( short sight ), इसमें भी फाइसोस्टिग्मा लाभ करती है। दूर की चीज साफ़ दिखाई देना, पास की चीज दिखाई नहीं देना ( long sight ) ; इसके सिवा इसमें और भी एक तरह की आँख की बीमारी शामिल है, जिसमें रोगी को नाना प्रकार के रंग दिखाई देते हैं, उसमे भी फाइसोस्टिग्मा फायदा करती है। रतौंधी, आँख की किसी भी बीमारी में आँख की पुतली का संकोचन और आँख से पानी गिरने के लक्षण हों तो सबसे पहले इस दवा को याद करें। यह आँख में डालने के काम में भी आती है। मूल औषध 2 बून्द 1 औंस डिस्टिल्ड वाटर में मिलाकर, दिन में 3-4 बार प्रयोग करना चाहिए।
फाइसोस्टिग्मा – पक्षाघात, आघातजन्य धनुष्टंकार, नर्तन-रोग, सकम्प पक्षाघात, मेरुदण्ड में रक्त संचय, घोड़ों को होनेवाला धनुष्टंकार तथा मायोपिया, दूर-दृष्टि, निकट दृष्टि, स्टैफाइलोमा, ग्लोकोमा, चोट लगकर चक्षुतारा का बाहर निकल पड़ना, कनीनिका में गँदलापन और घाव वगैरह, आँख की बीमारी में – इसका प्रयोग अच्छा रहता है।
वृद्धि – सवेरे, ज्यादा मेहनत करने से, मानसिक चिंता से।
कमी – खुली हवा में, टहलने से, आँख बंद करने से, स्थिर रहने से, गर्म घर में, कपूर सूंघने से।
सदृश – एट्रोपिन, एगरिकस, नक्स, जेल्सी, ओपि, स्ट्रैमो, टैबेकम।
क्रम – 3 से 6 शक्ति।