जो बच्चे 280 दिनों से पहले पैदा हो जायें उनको समय से पहले पैदा हुए बच्चे के रूप में जाना जाता है । इसका कारण माँ की कमजोरी, शक्तिशाली भोजन न मिलना, सदमा, स्नायविक कमजोरी, उपदंश रोग, क्षय, मलेरिया, वृक्कों की सूजन, यकृत के पुराने रोग, इन्फेक्शन से उत्पन्न रोग जैसे लाल ज्वर, टायफायड ज्वर, जानबूझ कर बार-बार गर्भ गिराना आदि हैं, समय से पूर्व पैदा होने वाले बच्चे का वजन ढाई कि.ग्रा. से भी कम होनां, धड़ के मुकाबले सिर बहुत बड़ा होना, सिर की हड्डी (तालु) सिर के सामने वाला भाग और पिछले भाग में हड्डी न बनना, कान का बाहरी भाग बहुत नरम और सिर से जुड़ा होना, त्वचा खुश्क और झुर्रियों वाली होना, बच्चे के अण्डकोषों में वृषणों (खसियों) का न उतरना, बच्चे की आवाज बहुत बारीक होना, बच्चे का रो तक न सकना, साँस भली प्रकार न आना, ऑक्सीजन की कमी से चेहरा नीला होना, टेम्परेचर नार्मल से भी कम 35 सेण्टीग्रेड या गर्मी की अधिकता में 40 सेण्टीग्रेड होना, माता के स्तनों, बोतल या चम्मच से दूध न पी सकना इत्यादि समय से पहले पैदा होने वाले बच्चे के प्रधान लक्षण हैं। ऐसे बच्चे को इन्फेक्शन लग जाने से न्यूमोनिया और इन्फ्लूएंजा जैसे रोग भी शीघ्र हो जाया करते हैं ।
चिकित्सा
शिशु के जन्म लेते ही गरम-गरम बादाम रोगन, तिलों का तेल आदि की नरमी से मालिश कर दें । गरम जुराबें, गरम कपड़े आदि पहना दें । गरम पानी की बोतलें या रबड़ की बोतलें शिशु की टाँगों के पास रखकर शरीर को गर्मी पहुँचायें (यदि गरम बोतलों से शिशु को अधिक गर्मी से तापमान 38 से 39 सेण्टीग्रेड से अधिक बढ़ जाये तो बोतलों को हटा दें) ऐसे शिशुओं को हमेशा 38-39 C से अधिक गरम पानी से स्नान करायें तथा कमरे का तापमान भी 20°C से कम न होने दें । आंवल कट और खुश्क हो चुकने के बाद ही ऐसे शिशु को गरम पानी से स्नान करायें ।
माँ का दूध पी सकने पर प्रत्येक 2 घण्टे पर (24 घण्टे में 10 बार) शिशु को दुग्धपान करायें ।
विशेष – शिशु कमजोरी के कारण माता को दुग्धपान करते समय थक जाता है, इसी कारण से भली प्रकार (भर पेट) दुग्धपान नहीं हो पाता है अत: ऐसी स्थिति में माँ का दूध निकाल कर ड्रॉपर से या बोतल में डालकर निप्पल से दूध पिलायें । नर्सिंग होम में बच्चे के मुख से दुग्धपान न कर सकने की स्थिति में उनके गले में 12 से 15 नम्बर के रबड़ के कैथेटर डालकर 6-7 बार दूध प्रविष्ट किया जाता है ।
नवजात शिशु की आँखें दुखना
यह एक संक्रामक रोग है, जिसे डॉक्टरी में Ophthalmia Neonatorum कहा जाता है । यह रोग इन्फेक्शन से हो जाता है । तुरन्त चिकित्सा न करने से आँखों को हानि पहुँच सकती है । प्रसव के समय दाई के गन्दे हाथ, योनि का इन्फेक्शन, माता को सुजाक का इन्फेक्शन इत्यादि होने पर जन्म से 5 दिन में नवजात शिशु की आँखें दुखने लग जाती हैं। यदि इस समय के बाद शिशु की आँखें दुखें तो यह समझ लें कि बच्चे को गन्दे तौलिया से सुजाक का संक्रमण लग गया है ।
चिकित्सा
सर्वप्रथम थोड़े से जल में बोरिक एसिड भली-भाँति मिला कर खूब उबालें । जब उबलने लग जाये तब उसमें स्वच्छ, मुलायम वस्त्र भिगोकर तथा निचोड़कर उसकी भाप से आँख को सेकें इसके बाद कैम्बीनेशन आई ऑइंटमेंट (हैक्स्ट) को दिन में 3-4 बार लगायें ।
अन्य औषधियाँ – मेड्रीसान आफ्थैल्पिक सॉल्यूशन (एफ. डी. सी.), एफ कारलिन एन (आई एण्ड ईयर ड्राप्स एवं मरहम), निर्माता एलेन बरोज, नेवा कार्टियल ऑइंटमेंट (फाईजर), ओरिसूल टिकिया (सीबा गैगी), जाइक्रिटी सीन पेडियाट्रिक इन्जेक्शन (साराभाई), बैक्ट्रिम पेडियाट्रिक टिकिया (रोश), क्रिसफोर (Crys-4) इन्जेक्शन (साराभाई) इत्यादि का प्रयोग मात्रानुसार एवं रोगानुसार परम लाभकारी सिद्ध होता है ।
नवजात शिशु का पीलिया (पाण्डु) रोग
जन्म के 2-3 दिन के बाद बच्चे को पीलिया रोग हो जाता है जिससे उसका शरीर पीला पड़ जाता है । इसके बाद रोग अधिक होने पर उसकी आँखों का सफेद भाग भी पीला पड़ जाता है, मूत्र भी पीला आने लग जाता है । यह रोग बच्चे के जन्म से 36 से 48 घण्टे बाद होता है । चौथे-पाँचवे दिन यह रोग बहुत बढ़ जाता है । दसवें दिन से यह रोग दूर हो जाता है । मामूली पीलिया स्वयं दूर हो जाता है, इसकी चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती है परन्तु समय से पहले पैदा हुए बच्चों को यह रोग दूसरे सप्ताह तक बना रहता है।
रोग की अधिकता में बच्चे को किसी बड़े सरकारी अस्पताल में दाखिल करा दें । वहाँ बच्चे को उसके ग्रुप का रक्त दिया जाता है और उसका दूषित रक्त निकाल लिया जाता है । साथ ही बच्चे की शिरा में ग्लूकोज भी प्रविष्ट कराया जाता है ।
पीलिया में बच्चे को विटामिन बी कॉम्प्लेक्स, विटामिन बी12 विशेष कर विटामिन ‘के‘ का प्रयोग अतीव गुणकारी सिद्ध होता है ।
टोनो-लीवर (स्टैडमैड) शिशुओं को 2.5 मि.ली. बराबर मात्रा में माँ का दूध या फलों का रस मिलाकर (थोड़ा माता का स्तनपान कराने के बाद) दिन में 2 बार पिलाना अतीव गुणकारी है।
सोर्बीलाइन लिक्विड (ग्रिफान), एल्बीजाइम टिकिया (एलेम्बिक), सियोमेथियोनीन सीरप (अल्वर्ट डेविस), ऐरीथ्रोटोन लिक्विड (निकोलस), स्टिमुलिव सीरप (फ्रेन्को इण्डियन), आईबेराल लिक्विड (अब्बोट) इत्यादि का सेवन भी परम हितकारी सिद्ध होता है ।
नवजात शिशु में रक्तस्राव होने लग जाना
बच्चे के जन्म से 10-12 दिन के अन्दर उसके मुँह, नाक, मूत्र की नली, गुदा से खून आने लग जाता है या भीतरी अंगों से रक्तस्राव होने लग जाती है ।
चिकित्सा
नोट – यदि इस रोग की तुरन्त चिकित्सा नहीं की जाती है तो शिशु की मृत्यु हो सकती है। बच्चा पैदा होने से तुरन्त पहले उसकी माँ को विटामिन ‘के’ से निर्मित कोई दवा जैसे – कैपिलीन (ग्लैक्सो), सिनकेविट (रोश), जाईगान (साराभाई) कोई 1 दवा 10 मि.ग्रा. खिलायें । इससे माता या शिशु को रक्तस्राव होने का डर नहीं रहता है।
स्टिप्टोक्रोम (डोल्फिन) इसका इन्जेक्शन बच्चा उत्पन्न होने के तुरन्त पहले बच्चे की माँ को 2 मि.ली. की मात्रा में माँस में लगायें तथा बच्चा पैदा होने के बाद नवजात शिशु को 0.5 मि.ली. का माँस में इन्जेक्शन लगायें ।
एमिकार (सायनेमिड) शिशु उत्पन्न होने से पहले माँ को एक टिकिया दिन में 1-2 बार तथा शिशु उत्पन्न होने के बाद शिशुओं को चौथाई से आधी टिकिया माँ के दूध में मिलाकर दिन में 1-2 पिलायें ।
केरूटिन-सी (मर्करी) प्रयोग पूर्ववत करायें । इसकी टिकिया आती है ।
नाभि-आंवल की सूजन
कार्बोलिक लोशन से धोकर और खुश्क करके आइडोफार्म छिड़क कर नरमी से पट्टी बाँध दें। नाल पृथक हो जाने पर घी को आग पर कड़कड़ाकर उसमें जली हुई कौड़ियों की कपड़े से छनी राख मिलाकर प्रतिदिन एक बार नाल पर लगाते रहना अतीव उपयोगी है।
जनशन वायलेट लोशन 1% वाला रुई की फुरैरी से दिन में 2-3 बारे लगायें ।
अन्य औषधियाँ – प्रोकेन पेनिसिलीन इन्जेक्शन (सारा माई) बैक्ट्रिम पेडियाट्रिक टैबलेट व संस्पेंशन (रोश) ब्राडिसिलीन ड्राप्स (बेलकम) इत्यादि का प्रयोग भी परम लाभकारी है ।