यह एक संक्रामक-बीमारी है, जो एक प्रकार के कीटाणु (Bacillus Anthracis) या विष के कारण फैलती है। पहले यह रोग पशुओं को ही होता था, परन्तु अब मनुष्यों को भी होने लगा है। इस रोग में सम्पूर्ण शरीर में खुजली मचली है तथा 24 घण्टे के भीतर ही रोगाक्रान्त स्थल कीड़े द्वारा काटे जाने की भाँति लाल होकर फूल जाता है। फिर वहाँ पानी भरी बड़ी फुन्सी दिखाई देती है। फुन्सी के गल जाने पर जख्म उत्पन्न हो जाता है। यदि रोग कठिन हुआ तो ज्वर, पसीना, वमन तथा पतले दस्त आदि के लक्षण भी प्रकट होते हैं । यदि रोग ने उग्र रूप ग्रहण कर लिया हो तो हिमांग होकर रोगी की मृत्यु हो जाती है ।
इसमें लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ काम करती हैं :-
ऐन्थ्राक्सिनम 30 – रक्त में खराबी आ जाने के कारण शरीर में अत्यधिक जलन का अनुभव होने में हितकर है।
टैरेण्टुला 30, 200 – बैंगनी रंग का दूषित जख्म, जिसमें डंक मारने जैसी यंत्रणा, भयानक जलन तथा अत्यधिक कमजोरी के लक्षण प्रकट हों तो इस औषध का प्रयोग हितकर रहता है ।
सिकेलि 6 – रोगी स्थान का सड़ना आरम्भ होने पर इसे दें । ठण्डे प्रयोग से रोग का घटना तथा गर्मी में बढ़ना – इसके विशेष लक्षण हैं।
लैकेसिस 6 – यदि फुन्सियाँ नीली अथवा काली आभा वाली हों तो इसका प्रयोग करना चाहिए ।
मैलेण्ड्रिनम 30 – चेचक की गोटी जैसी फुन्सियाँ, पतले तथा कालिमायुक्त दस्त के लक्षणों में हितकर है ।
हाइपेरिकम 200 – इसके सेवन करने तथा जख्म पर गरम सेंक देने से लाभ होना आरम्भ हो जाता है। इस रोग में सर्वप्रथम इसी औषध का सेवन उचित है। यदि इससे लाभ न हो तो लक्षणानुसार किसी अन्य औषध का निर्वाचन करना चाहिए ।