परिचय : 1. इसे इन्द्रवारुणी (संस्कृत), इन्द्रायण, इनास (हिन्दी), राखालसा (बंगला), इन्द्रवण (मराठी), इन्द्रवणा (गुजराती), पेतिकारि (तमिल), पापरबुडम् (तेलुगु), हंजल (अरबी) तथा सिट्युलुस कोलोसिन्थिस (लैटिन) कहते हैं।
2. इन्द्रायण की बेल जमीन पर फैलनेवाली, रोमयुक्त और खुरदरी होती है। इन्द्रायण के पत्ते कटे, किनारेदार, तरबूजे की पत्तियों के समान, 2-3 इंच लम्बे होते हैं। इन्द्रायण के फूल भण्टे के आकारवाले, पीले रंग के होते हैं। इन्द्रायण के फल गोल 2-4 इंच गोलाई के, चिकने, कच्ची अवस्था में हरे और पकने पर पीले रंग के रहते हैं। इन्द्रायण के बीज कत्थई या कालापन लिये होते हैं।
3. इसकी कई जातियाँ होती हैं, जिनमें मुख्य दो हैं : (क) इन्द्रायण (छोटी इन्द्रायण, ऊपर वर्णित)। (ख) विशाल (बड़ी इन्द्रायण, फल बड़े और लाल)।
4. यह भारत में सर्वत्र, विशेषत: मध्यभारत, राजस्थान और पश्चिमोत्तर प्रदेश में होती है।
रासायनिक संघटन : इसके फल के गूदे में एक कड़वा सत्त्व कोलोसिन्थिन, एक ग्लूकोसाइड 14 प्रतिशत, कोलेसिन्थेटिन, पेक्टिन, गोंद तथा क्षार 11 प्रतिशत होते हैं। जड़ में भी कुछ मात्रा में कोलोसिन्थिन तत्त्व मिलता है।
इन्द्रायण के गुण : यह स्वाद में कड़वा, पचने पर कड़वा तथा हल्का, रूखा, तीक्ष्ण और गर्म है। इसका मुख्य प्रभाव पाचन-संस्थान पर भेदक (दस्त लानेवाला) और विरेचक (पर्गेटिव) रूप में पड़ता है। यह केशवर्धक, रक्तशोधक, शोथहर, कफनि:सारक, प्रमेहहर, व्रणशोधक तथा कटु-पौष्टिक है।
इन्द्रायण के उपयोग
1. कामला : कामला में इन्द्रायण की जड़ का चूर्ण 1-2 माशा गुड़ के साथ दें।
2. उन्माद : उन्माद में इन्द्रायण के फल का गूदा 1-3 माशा गोमूत्र के साथ दें।
3. वातरोग : वातरोग, संधिवात, अर्दित और जलोदर में इन्द्रायण की जड़ 1 माशा, पिप्पली-चूर्ण 1 माशा, गुड़ 3 माशा मिलाकर दें।
4. स्त्री-स्तन-शोथ : इन्द्रायण की जड़ का लेप करने से स्त्री के स्तनों का शोथ एवं उठता हुआ फोड़ा मिट जाता है।
5. प्लीहावृद्धि : तिल्ली बढ़ने पर उस रोगी का नाम लेकर यदि इसकी जड़ उखाड़कर कहीं दूर फेंक दें, तो तिल्ली में लाभ होता है। यह कार्य प्रभावजन्य है।
6. इन्द्रलुप्त : सिर में फुन्सी होने तथा बाल चिपकने पर इसकी जड़ का गोमूत्र के साथ लेप करने से 3 दिन में लाभ होता है।
सावधानी : अधिक सेवन से मरोड़ तथा बड़ी आँत में सूजन हो जाती है। अत: इसे सतर्कता से काम में लाना चाहिए।