यह एक संक्रामक बीमारी है। बेसिलस-लेप्रो (Bacillus Leproe) नामक ‘जीवाणु’ जब त्वचा, उतरे हुए स्थान अथवा श्लैष्मिक-झिल्ली के मार्ग से शरीर के भीतर प्रविष्ट हो जाता है, तब उस जगह वह या तो गाँठ उत्पन्न कर देता है अथवा स्नायुओं में परिवर्तन ला देता है। शारीरिक अवस्था में जब इस प्रकार का उलट-फेर हो तो उस स्थान पर कुष्ठ-रोग उत्पन्न होने की बात समझ लेनी चाहिए । ये कीटाणु रोगी के खुले हुए घाव, गलदेश (नाक के समीप) रहते हैं तथा खटमल एवं रोगी द्वारा व्यवहार में लाये गये वस्त्रों के माध्यम से एक से दूसरे स्थान पर जा पहुँचते हैं। यह बीमारी वंश परम्परा से भी प्राप्त होती है या नहीं, इसका आज तक कोई पुष्ट प्रमाण प्रास नहीं हो सका है ।
इस रोग की दो किस्में मानी जाती है :-
(1) गलित कुष्ठ (Tubercular Leprosy)
(2) स्पर्शहर-कुष्ठ (Anesthetic Leprosy)
‘गलित-कुष्ठ’ में सर्वप्रथम शरीर पर बहुत दर्द वाली लाल रंग की पित्ती अथवा लाल रंग की फुन्सियाँ दिखाई देती हैं। वहाँ पर गाँठें सी बन जाती हैं तत्पश्चात् उन गाँठों का मुँह खुलकर गहरा जख्म हो जाता है और उसमें गलाव पैदा हो जाता है । गलाव के फलस्वरूप हाथ-पाँव की अंगुलियों, नाक की श्लैष्मिक झिल्ली तथा पलकों और भौंह के केश झड़कर गिरने लगते हैं। कभी-कभी फेफड़ों में जलन के लक्षण भी प्रकट होते हैं। अन्त में रोगी की मृत्यु हो जाती है।
स्पर्शहर-कुष्ठ में सभी स्नायुओं पर रोग का आक्रमण होता है तथा वहाँ की त्वचा मर जाती है, जिसके फलस्वरूप स्पर्शानुभव की शक्ति समाप्त हो जाती है, बड़े-बड़े फफोले प्रकट होते हैं तथा पेशियाँ पतली पड़कर पक्षाघात हो जाता है। यह रोग 8 से 15 वर्ष तक स्थायी बना रहता है, इसका परिमाण भी भयावह सिद्ध होता है।
कुष्ठ रोग की चिकित्सा
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर सिद्ध होती हैं :-
हाइड्रो-कोटाइल Q, 6 – इस रोग की मुख्य औषध मानी जाती है। इस रोग में त्वचा बहुत मोटी हो जाती है तथा उससे छिछड़े झड़ते रहते हैं, परन्तु जख्म नहीं बनता । मोटी त्वचा, छाती, तलहत्थी, तथा तलवों में बेहद खुजली – इन सब लक्षणों में इस औषध के मूल-अर्क को 5 बूंद की मात्रा में अथवा शक्ति-कृत औषध का नियमानुसार प्रयोग करना चाहिए ।
आर्स आयोड 3x वि० – काँटे गढ़ने जैसी चुभन, अँगुलियों तथा अँगूठों का गलकर झड़ जाना, गाँठों का फूला होना तथा टेढ़ी गुटिकाओं के लक्षणों में यह औषध लाभ करती है । इसे प्रति 4 घण्टे के अन्तर से देना चाहिए।
आरम-मेट 30, 200 – नाक से दुर्गन्धित सडाँधयुक्त स्राव का निकलना, चित्त की खिन्नता तथा रोगी द्वारा आत्मघात करने की इच्छा – इन सब लक्षणों में यह औषध लाभ करती है।
वैसीलिनम 200 – इस औषध को अन्य औषधियों के साथ 15 दिन में एक बार दिया जाता है । जिस दिन यह औषध दी जाय, उससे एक-दो दिन पहले तथा एक-दो दिन बाद तक कोई अन्य औषध नहीं देनी चाहिए। यह सुनिर्वाचित औषध के प्रभाव में वृद्धि कर देती है।
ग्रैफाइटिस 6, 30 – बिवाइयों में अथवा फटी हुई त्वचा में से चिपचिपा स्राव निकलने के लक्षणों में लाभ करती है ।
बेलाडोना 3x – नवीन-ज्वर के साथ लाल रंग की त्वचा होने तथा रोग की प्रारम्भिक-अवस्था में हितकर है ।
आर्स-एल्ब 3x – जख्म और दर्द अथवा बिना दर्द वाले जख्म के लक्षणों में लाभकर है ।
लैकेसिस 30, 200 – गहरे घाव के लक्षणों में हितकर है।
सिपिया 6 – त्वचा का भूरे अथवा पीले रंग का हो जाने के लक्षणों में लाभकारी है ।
कोमोक्लेडिया 2x – त्वचा का रंग सफेद हो जाने पर इसे देना चाहिए ।
क्रोटेलस 3 – इस औषध को बहुत दिनों तक सेवन करते रहने पर लाभ प्रतीत होता है ।
सल्फर 30, 200 – इस औषध की एक मात्रा बहुत दिनों के अन्तर से देनी चाहिए ।
आस्टिलेगो Q, 1x तथा पिपरीन 6, 30 – ये दोनों औषधियाँ भी इस रोग में लाभ करती हैं ।
रोगी को सदैव स्वच्छ सबसे अलग रहना चाहिए । जख्म वाली जगह पर ‘वुड ऑयल’ (Wood Oil) की मालिश करनी चाहिए। पौष्टिक भोजन करना चाहिए तथा माँस-मछली खाना सर्वथा त्याग देना चाहिए ।