तालु के दोनों ओर बादाम जैसी ग्रन्थियाँ होती हैं। इनमें से किसी एक अथवा दोनों ग्रन्थियों के लाल, गर्म तथा फूल जाने को ‘तालुमूल-प्रदाह’ कहते हैं। यह रोग ‘नया’ तथा ‘पुराना’ दो प्रकार का होता है । ‘तालुमूल-प्रदाह’ को अंग्रेजी में ‘टॉन्सिलाइटस’ अथवा “टॉन्सिलों की सूजन’ भी कहते हैं ।
तालुमूल के प्रदाहित होने पर श्वास-कष्ट, निगलने में कष्ट, मुँह से अधिक खून निकलना, स्वर-भंग, सिर-दर्द, शरीर में दर्द तथा ज्वर आदि उपसर्ग प्रकट होते हैं । यदि नई बीमारी का उचित उपचार नहीं होता तो प्रदाहित-स्थान में जख्म हो जाता है, फिर घाव फट कर पीब बहने लगता है, तब यह पुरानी बीमारी का रूप ग्रहण कर लेता है । रोग की पुरानी अवस्था में जीभ की जड़ वाली गाँठ इतनी बढ़ जाती है कि कुछ भी निगलने की शक्ति नहीं रहती तथा उप-जिह्वा एक ओर को टेढ़ी हो जाती है ।
नवीन तालुमूल-प्रदाह की चिकित्सा (Acute Tonsillitis)
नवीन तालुमूल-प्रदाह में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर सिद्ध होती हैं :-
ऐकोनाइट 30 – आरम्भ में ठण्ड लगने अथवा ज्वर आने के समय तालुमूल सूज जाय तथा गले में दर्द, बेचैनी एवं घबराहट के लक्षण प्रकट हों तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
फेरम-फॉस 6x – रोग की प्रारम्भिक अवस्था में यह भी ‘ऐकोनाइट’ की भाँति ही लाभ करती हैं ।
बेलाडोना 3x, 30 – रोग के उक्त दोनों औषधियों के क्षेत्र से आगे बढ़ जाने पर इस औषध का प्रयोग किया जाता है। टॉन्सिलों में सूजन तथा लाली के सामान्य लक्षण होने पर इसे दें । इस औषध के रोग का आक्रमण प्राय: दायें टॉन्सिल पर ही होता है ।
एपिंस 30 – यदि टॉन्सिलों में लाली तथा सूजन अधिक हो अर्थात् रोग में ‘बेलाडोना’ से अधिक गहरे लक्षण दिखायी दें तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
बैराइटा-कार्ब 6, 30 – डॉ० हयूजेज के मतानुसार यह तालु-मूल-प्रदाह की मुख्य औषध है । टॉन्सिल सूज जाने पर केवल तरल-पदार्थों को ही निगल पाना, अन्य कुछ न निगल पाना एवं जरा सी ठण्ड लगते ही तालुमूल का सूज जाना-इन लक्षणों में लाभकारी है। यह कण्ठमाला प्रकृति के रोगियों के जीर्ण-तालुमूल-प्रदाह में भी लाभकारी हैं ।
हिपर-सल्फर 6 – यदि टॉन्सिल में पस पड़ जाने की सम्भावना हो और उसे पका डालना ही आवश्यक तथा उचित प्रतीत होता हो तो उसे पका कर फोड़ने के लिए इस औषध का प्रयोग करना चाहिए। यह एक तरह से पुल्टिस जैसा कार्य करने वाली औषध है ।
साइलीशिया 12x, 30 – यदि रोग की उग्र स्थिति हो, टॉन्सिल में चुभन जैसा दर्द हो, ‘हिप्पर-सल्फर’ के प्रयोग से टॉन्सिल का पस निकल जाने के बाद भी उसे ठीक होने में देर लग रही हो तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
गुआएकम 6 – तालुमूल-प्रदाह की प्रथमावस्था में यह औषध भी अत्यधिक लाभ करती है। गले की खुश्की, फूल जाना, कान की ओर चुभन जैसा दर्द, टॉन्सिल का सूज कर काले रंग का हो जाना, उनमें निरन्तर दर्द होना, जिनकी टीस कानों तक पहुँचती हो, सर्दी लगने के कारण टॉन्सिलों की सूजन, सिर-दर्द, ठिठुरन एवं पीठ तथा शरीर में दर्द-इन लक्षणों में इस औषध की लगातार कुछ मात्राएं देते रहने से बीमारी बीच में ही ठीक हो जाती है ।
लाइकोपोडियम 30 – यदि टॉन्सिल की सूजन बाँयीं ओर से आरम्भ होकर दायीं ओर को जा रही हो, बायीं ओर का तालुमूल लाल तथा फूला हुआ हो और रोगी को गरम पेय पसन्द हो, ठण्डा पसन्द न हो तो यह औषध हितकर सिद्ध होगी ।
लैकेसिस 30 – यदि टॉन्सिल की सूजन दाँयीं ओर से शुरू होकर बाँयीं ओर को जा रही हो तथा रोगी को ठण्डा पेय पसन्द हो, गरम पसन्द न हो, (‘लाइको’ से विपरीत) तो यह औषध हितकर सिद्ध होगी ।
फाइटोलैक्का 3, 30 – टॉन्सिलों के पक जाने पर यह औषध श्रेष्ठ लाभ करती है । सूजे हुए टॉन्सिलों का पहले तेज लाल रंग का होना, फिर उन पर सफेद चिन्ह पड़ जाना, जो आगे चलकर डिफ्थीरिया जैसी शक्ल ग्रहण करने को हों। टॉन्सिलों के शोथ के कारण एक अथवा दोनों कानों में टीस मार उठना, टॉन्सिलों की ग्रन्थियों में सूजन एवं सख्ती, गले में दर्द, कान के समीप तथा जबड़े के नीचे ग्लैण्ड्स में शोथ, गले में टॉन्सिलों की शोथ के साथ ही गाढ़ा तथा लसदार श्लेष्मा एकत्र हो जाना, टॉन्सिलों में स्पंज की भाँति छोटे-छोटे छेद होना तथा रोगी का गरम पानी न पी सकना-इन सब लक्षणों में यह औषध लाभ करती है । इस औषध के ‘मूल-अर्क’ की 10 बूंदों को 1 कप पानी में डाल कर लोशन तैयार कर लें और इस लोशन से गरारें करायें तो शीघ्र लाभ होगा ।
मर्क्यूरियस आयोडेटम रूब्रम – गले में दर्द, दोनों ओर के टॉन्सिलों में प्रदाह, विशेषकर बाँयीं ओर अधिक हो तो यह औषध उत्तम लाभ करती है । इसे आरम्भ में ही देने से तकलीफ नहीं बढ़ पाती और प्रदाह में कमी आ जाती है ।
मर्क्यूरियस आयोडेटम फ्लेवस 2x, 6 – यह गले के दाँयीं ओर के कष्ट में पूर्वोक्त औषध की भाँति ही लाभ करती है। निगलने में कष्ट तथा निगलते समय ऐसा प्रतीत होना कि गले में कुछ अड़ा हुआ है।
इग्नेशिया 30 – इस औषध का रोगी ठोस वस्तु को तो सरलता से निगल लेता है, परन्तु तरल वस्तु को नहीं निगल पाता (‘बैराइट-कार्ब’ का उल्टा) – ऐसे लक्षणों में इसका प्रयोग करना चाहिए ।
गन-पाउडर एवं बैराइटा-कार्ब 6 – रोग के विषाक्त हो जाने पर इन दोनों औषधियों को पर्याय-क्रम में (एक के बाद दूसरी) देने पर लाभ होता है ।
मर्क-बिन आयोड 3x – गला, जीभ तथा मसूढ़ों का फूलना, निगलने में कष्ट, मुँह में छाले, दुर्गन्धित श्वास-प्रश्वास, लार बहना एवं अधिक पसीना आने के लक्षणों में हितकर है ।
हिपर-सल्फर 6 – टॉन्सिलों में पीब की शिकायत हो तो इसका प्रयोग करना चाहिए ।
कैल्के-आयोड 3 वि० – यदि गले की घण्टी बढ़ गयी हो तो इसका प्रयोग हितकर रहता है ।
जीर्ण-तालुमूल-प्रदाह की चिकित्सा ( Chronic Tonsillitis)
बैराइटा-म्यूर 30 – कण्ठमाला-प्रकृति के रोगियों के जीर्ण-तालुमूल-प्रदाह, निगलने में दर्द तथा गले में किसी ठोस पदार्थ के अटके होने की अनुभूति, पीब होने की तैयारी अथवा सड़ना आरम्भ होने के लक्षणों में इस औषध का प्रयोग करना चाहिए तथा जब तक रोग ठीक न हो जाय, तब तक सप्ताह में एक बार ‘वैसीलीनम’ की एक मात्रा भी देते रहना चाहिए।
बैराइटा-कार्ब 30 – यह औषध भी जीर्ण तालुमूल-प्रदाह में पूर्वोक्त औषध की भाँति ही उपयोगी है । डॉ० बर्नेट के मतानुसार यह आश्चर्यजनक लाभ करती है । सूजन अधिक होने पर यह बहुत लाभकारी है।
कालि-म्यूर 6x – डॉ० ड्युई के मतानुसार यह औषध नये तथा पुराने दोनों प्रकार के तालुमूल-प्रदाह में लाभ करती है।
ऐलूमेन 30 – सर्दी लगने के कारण टॉन्सिलों का बढ़ना, सूजन तथा कड़े पड़ जाना एवं रोगी द्वारा ठण्ड सहन न कर पाना-इन लक्षणों में हितकर है । जिन लोगों को टॉन्सिल बढ़ जाने तथा उनके कड़े पड़े जाने की शिकायत प्राय: ही होती रहती है, उनके लिए यह बहुत ही लाभकारी है।
कैल्केरिया-फॉस 6 – कैल्केरिया तथा कण्ठ-माला प्रकृति के बालकों के जीर्ण तालुमूल-प्रदाह में यह औषध अत्यधिक लाभ करती हैं। अधिक सूजन, पेशाब में दुर्गन्ध तथा तालुमूल का रंग काला होने पर इसे दें ।
कैल्केरिया कार्ब 1M तथा ट्यूबर्क्युलीनम 1M – जो बालक मोटे, थुलथुल शरीर के हों तथा दीवार, मिट्टी, कागज आदि खाया करते हों, उन्हें यदि टॉन्सिल की बीमारी हो जाती हो तो इन दोनों औषधियों को 15-15 दिन के अन्तर से, एक-दूसरी के बाद सेवन कराना चाहिए। यदि इन दोनों से लाभ होता दिखायी न दे तो – ‘थूजा, बैराइटा कार्ब तथा वैसीलीनम’ को नीचे लिखे अनुसार देना चाहिए। रात के समय पसीना आना तथा हाथ-पाँव ठण्डे एवं लसदार पसीना होने पर – ‘कैल्के-कार्ब’ हितकर है ।
थूजा 200, बैराइटा कार्ब 200 तथा वैसीलीनम 200 – टॉन्सिलों की पुरानी बीमारी में पहली दो औषधियों को सप्ताह में एक बार, एक-दूसरी के बाद देते रहें तथा इन दोनों के बीच में, किसी एक सप्ताह में, ‘वैसीलीनम’ की एक मात्रा दें । जिस सप्ताह में ‘वैसीलीनम’ दी जाय, उस सप्ताह में अन्य औषधियाँ नहीं देनी चाहिए ।
थूजा 30 – टीका लगवाने के बाद के उपसर्गों में हितकर है।
वैसीलीनम.30 – रोगी के वंश में यक्ष्मा की बीमारी होने पर इसे देना चाहिए।
सल्फर 30 – रोग का बार-बार हमला होने पर लाभकर है ।
मर्क-बाई 3 – फोड़े में पीब हो जाने पर उसे जल्दी निकालने के लिए इसका प्रयोग करना हितकर रहता हैं ।
बैराइटा कार्ब 30 – ग्रन्थियों के कड़ा हो जाने पर इसे दें।
इस रोग में गरम पानी अथवा गरम दूध से कुल्ला करना लाभकर होता है।