यह एक प्रकार का ‘संक्रामक-रोग’ है, जो एक प्रकार के विष तथा जीवाणु के रक्त में प्रविष्ट हो जाने पर उत्पन्न होता है । यह रोग अधिकतर बच्चों को होता है, परन्तु बड़ी आयु के लोगों को भी हो सकता है । इस रोग के आरम्भ में रोगी को गला दुखने की शिकायत होती है। कभी-कभी यह शिकायत अचानक ही उठ खड़ी होती है और रोगी का गला बड़ी जोर से दुखने लगता है । फिर गले की श्लैष्मिक-झिल्ली में एक प्रकार का पर्दा-सा पड़ जाता है, इस पर्दे को ही यथार्थ में ‘डिफ्थीरिया’ कहते हैं। इस पर्दे के कारण रोगी की साँस बन्द होकर मृत्यु हो जाती है ।
सामान्य-डिफ्थीरिया में गले में दर्द, निगलने में कष्ट, रोगी द्वारा गले से थूक अथवा श्लेष्मा निकालने की चेष्टा करते रहना, गले की ग्रन्थियों का बढ़ जाना अथवा कड़ा हो जाना, कृत्रिम पर्दे का फट कर टुकड़े-टुकड़े के रूप में बाहर निकलना, पूरा पर्दा फट जाने पर उस जगह जख्म दिखायी नहीं देता, अपितु वह स्थान एकदम लाल रंग का प्रतीत होता है ।
रोग के सांघातिक रूप में प्रकट होने पर, पहले तीव्र ज्वर, दस्त, वमन, कंपकंपी, बेचैनी, कमजोरी आदि लक्षण प्रकट होते हैं । फिर गले की झिल्ली रोगाक्रान्त होकर लाल हो जाती है तथा तालु एवं तालुमूल-ग्रन्थि फूल कर उसके ऊपर एक कृत्रिम-पर्दा पड़ जाता है। यदि यह कृत्रिम-पर्दा शीघ्र ही नहीं फटता तो साँस रुक कर रोगी की मृत्यु हो जाती है ।
आरम्भ में गले की ग्रन्थियों में शोथ, अत्यधिक कमजोरी, श्वास में दुर्गन्ध आना, रोगी की नींद आते रहना, जीभ पर लेप चढ़ जाना, मुँह से लार टपकना, शरीर का तापमान बढ़ जाना अथवा बहुत गिर जाना, गले का काला तथा लाल हो जाना एवं. टॉन्सिलों में सूजन आदि लक्षण प्रकट होते हैं। रोग के आक्रमण के तीसरे दिन ही टॉन्सिलों तथा तालु के ऊपर कृत्रिम-झिल्ली आकर सम्पूर्ण गले को घेर लेती है। आरम्भ में झिल्ली का रंग भूरा सफेद होता है, बाद में वह मैला, पीला हो जाता है । झिल्ली को बढ़ने से रोक-थाम करने में सफलता मिलने पर गला रुक कर रोगी की मृत्यु हो जाती है । इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं :-
एपिस 30 – डॉ० ज्हार के मतानुसार यह इस रोग की अत्यन्त उपयोगी औषध है। गले का चमकीला तथा अन्दर से वार्निश किया हुआ-सा प्रतीत होना, टॉन्सिलों का तथा उप-जिह्वा का फूल कर लम्बा हो जाना तथा उनमें सूजन, गले से कुछ छुआ न जा सकना एवं सूज कर फूल जाना तथा पेशाब का रुक जाना-इन विशेष लक्षणों में इस औषध का प्रयोग हितकर रहता है।
लैक कैनाइनम 30, 200 – झिल्ली का गले के एक ओर से आरम्भ होकर जीभ पर दूध जैसी सफेदी तथा झिल्ली पर मोती अथवा चाँदी जैसी सफेदी परिलक्षित होना-सब लक्षणों में इसे देना चाहिए।
कालि-बाईक्रोम 3, वि० 30 – डिफ्थीरिया का नाक पर विशेष रूप से आक्रमण होना एवं नाक से सूतदार स्राव निकलना, जो कठोर होने के साथ ही चिपट जाने वाला अर्थात् बड़ी मुश्किल से छूटने वाला हो, जीभ पर पीलापन एवं झिल्ली का मलिन तथा कड़ा होना-इन लक्षणों में दें।
लैकेसिस 30 – डिफ्थीरिया की झिल्ली का गले में बायीं ओर से आरम्भ होकर दाँई ओर को फैलना, चेहरे तथा गले पर नीलापन, गले का रुँध जाना, गर्दन तथा गले में स्पर्श-असहिष्णुता, रोगी द्वारा गर्म पदार्थों की अपेक्षा ठन्डे पेय को सरलता में निगल लेना, गर्मी सहन न होना, रक्त का अधिक दूषित हो जाना, गहरी सुस्ती। यदि रोगी को कोई कपड़ा पहनाया जाए और वो गले से तंग हो तो रोगी द्वारा उसे खींच कर हटा देना। हृत्पिण्ड की क्रिया का बहुत क्षीण हो जाना । रोगी का स्वभाव से वाचाल तथा सन्देहशील होना एवं नींद के बाद सभी शिकायतों में वृद्धि हो जाना-इन सब लक्षणों में यह औषध बहुत हितकर है।
फाइटोलैक्का 30 – यह डिफ्थीरिया तथा टॉन्सिल दोनों में हितकर है । गले तथा तालु में सूजन, गले में भूरे तथा सफेद रंग की मोटी एवं चिपकने वाली ऐसी झिल्ली का उत्पन्न हो जाना, जो छुड़ाने से भी न छूटे एवं रोगी द्वारा पानी तक भी न निगला जा सके-इन लक्षणों में यह औषध लाभ करती है। इस औषध की झिल्ली प्राय: दाँयीं ओर से आरम्भ होकर बाँयीं ओर को जाती है, परन्तु रोगी ठण्डक चाहता है। उसे अपने गले में एक ढेला-सा अटका हुआ अनुभव होता है तथा गले का दर्द कान की ओर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। इसी औषध के ‘मूल-अर्क’ की 5 बूंदों को 1 औंस पानी में डाल कर, उसके गरारे करने से भी रोगी को लाभ होता है ।
मर्क-सायेनेटस 6, 30 – अनेक चिकित्सक इसे ‘डिफ्थीरिया की स्पेसिफिक’ औषध मानते हैं । इसे प्रति तीन घण्टे के अन्तर से देना चाहिए । सार्वजनिक वक्ताओं के गल-शोथ तथा डिफ्थीरिया के बाद के पक्षाघात में भी यह हितकर है । सड़ने वाली डिफ्थीरिया तथा लार बहने के लक्षणों में यह विशेष लाभकर हैं ।
डॉ० कास्टिस तथा डॉ० विलर्स के मतानुसार यह डिफ्थीरिया रोग की सर्वश्रेष्ठ औषध है ।
डिफ्थीरिनम 200 – यह इस रोग की प्रतिषेधक-औषध मानी जाती है। अन्य औषधियों के साथ बीच-बीच में इसे भी देते रहना चाहिए। रोग की प्रथमावस्था में केवल इसी औषध से उपचार आरम्भ किया जा सकता है । यदि कहीं ‘डिफ्थीरिया’ फैला हुआ हो तो इस औषध की 30 शक्ति की केवल एक मात्रा सेवन कर लेने से रोग होने की सम्भावना नहीं रहती । डॉ० ऐलेन के मतानुसार अन्य किसी प्रकार की चिकित्सा के बाद भी यदि रोगी में कमजोरी, हाथ-पाँवों में अशक्तता आदि के लक्षण दिखायी दें, तब भी इसका प्रयोग करने से लाभ होता है ।
मर्क-बिन-आयोड 1x – मुँह तथा गले के भीतरी भाग का खूब लाल हो जाना, लाल ग्रन्थि तथा गर्दन की ग्रन्थि का खूब फूल जाना, घूंट लेने में कष्ट तथा सड़ने वाला घाव-इन सब लक्षणों में यह औषध बहुत लाभ करती है।
लाइकोपोडियम 6 – यदि डिफ्थीरिया दायीं ओर से आरम्भ होकर बायीं ओर को फैल जाय तो इसे दें ।
बैप्टीशिया Q, 3x – दुर्गन्धित भाप लगने आदि कारणों से रोग उत्पन्न होने पर इसे दें।
एकोनाइट 3x – रोगी स्थान के प्रदाहित होने, चेहरा तथा आँखें लाल, सिर में दर्द, नाड़ी भारी तथा कड़ी, श्वास निगलने में कष्ट, कोमल तालु, उप-जिह्वा एवं स्वर-नली का प्रदाह आदि लक्षणों में इसे देना चाहिए। कुछ चिकित्सकों के मत से ऐसे लक्षणों में ‘बेलाडोना 3x’ का प्रयोग भी हितकर सिद्ध होता है ।
मर्क्यूरियस 6x – रोगी स्थान पर दर्द, ग्रन्थि का फूलना, तालुमूल तथा गलकोष में लाली, जीभ का रंग लाल या भूरा, कृत्रिम-पर्दा उत्पन्न हो जाना, श्वास-प्रश्वास में दुर्गन्ध, निगलने में कष्ट, अत्यधिक लार बहना, गला दबाने पर दर्द का अनुभव, अत्यधिक सुस्ती तथा रोग का आक्रमण होने से पूर्व ही नाड़ी की चाल तेज हो जाना-इन लक्षणों में यह औषध लाभ करती है ।
एसिड म्यूरियेटिक 3 – गले के भीतर धुमैला जख्म, श्वास-प्रश्वास में दुर्गन्ध तथा सुस्ती के लक्षणों में इसका प्रयोग करें । साथ ही इस औषध का गले में लेप लगाना तथा कुल्ले करना भी हितकर रहता है ।
कालि-म्यूर 6 – घूंट लेने में कष्ट तथा गले में सादा पर्दा पड़ जाने के लक्षणों में यह लाभकारी हैं ।
ऐकिन्नेशिया – रोग की सड़ने वाली अवस्था में इस औषध को 5 से 10 बूंद तक की मात्रा में देने से लाभ होता है। अनेक चिकित्सक केवल इसी औषध के प्रयोग से रोग को दूर कर देते हैं।
आर्सेनिक 6 – रोग की अन्तिमावस्था में, जब नाड़ी क्षीण हो जाय, जख्म से रक्त अथवा पीब बहने लगे, गला फूला हो, गले तथा श्वास-नली से सड़ी-दुर्गन्ध आती हो, नाक के भीतर की आवरक-झिल्ली से लसदार दुर्गन्धित स्राव निकल रहा हो एवं गहरी सुस्ती आदि के भयानक लक्षण प्रकट हो चुके हों, तब इस औषध के प्रयोग से लाभ की आशा की जा सकती है । कुछ चिकित्सकों के मतानुसार ऐसे लक्षणों में ‘आर्सेनिक’ तथा ‘ऐमोन-कार्ब’ का पर्यायक्रम से व्यवहार करना विशेष लाभकर रहता है ।
- डॉ० फ्लोरेशम के मतानुसार डिफ्थीरिया के रोगी को अनन्नास का बहुत सा रस पिलाने से अत्यधिक लाभ होता है ।
- खूब गरम पानी से स्नान करने तथा ठण्डा पानी पीने से अनेक उपसर्ग दूर हो जाते हैं।
- डिफ्थीरिया के रोगी की प्यास शान्त करने के लिए उसे बर्फ के टुकड़े चुसाये जा सकते हैं ।
- ‘डाइल्यूट कार्बोलिक एसिड’ का बाह्य-प्रयोग दुर्गन्ध को नष्ट करता है ।
- आवश्यकता पड़ने पर किसी सुयोग्य शल्य-चिकित्सक की सहायता ली जा सकती हैं ।