शरीर में रक्त और पित्त की अधिकता, वृक्क के स्थान पर चोट लग जाने, किसी विषैली दवा या भोजन के खा लेने, पथरी पैदा हो जाने, अधिक सर्दी लग जाने, अधिक मद्यपान, छोटे जोड़ों के दर्द और ज्वर, पीठ के व्यायाम अधिक करने, घोड़े आदि की अधिक सवारी करने, मूत्राशय और मूत्र मार्ग के रोग, सुजाक, डिफ्थीरिया, उपदंश, स्कारलेट फीवर कारणों से यह रोग हो जाया करता है।
पुरुषों में अण्डकोष की गोलियाँ (इस रोग में) मांसपेशियों के प्रभाव से ऊपर को खिंच जाती हैं, छींकने, खाँसने से दर्द बढ़ जाता है । जिस ओर के वृक्क में सूजन हो, उस ओर का पैर खींचने से दर्द बढ़ जाता है । जाँघ का भीतरी भाग सुन्न प्रतीत होता है । मूत्र बहुत कम मात्रा में, थोड़ी-थोड़ी देर के बाद और दर्द के साथ आता है । मूत्र में एल्ब्यूमिन आने लग जाती है। मूत्र में रक्त आने पर इसका रंग काला सा हो जाता है । मितली और कै आती है । सर्दी लगकर ज्वर हो जाता है ।
रोग पुराना (क्रोनिक) होने पर मूत्र में बलगम, लेसदार और प्रायः पीप आने लग जाता है। शरीर दिन प्रतिदिन कमजोर होता चला जाता है। प्यास, सिरदर्द और नींद न आने के कष्ट भी हो जाते हैं।
नोट – रोग पुराना हो जाने पर इसको Bright’s Disease कहते हैं । इस रोग में वृक्क में फोड़ा भी हो जाता है। इस रोग से रोगी के शरीर में पानी पड़कर (Dropsy) शरीर फुल जाता है। विशेषकर चेहरा और आँख के पपोटे का चर्म फूल जाता है। (कई बार तो आँखें तक छिप जाती हैं) चेहरा फीका पड़ जाता है । मूत्र को उबालने पर एल्ब्यूमिन जम जाती है। कई प्रकार के रोगों में मूत्र क्षारीय, बार-बार और कम मात्रा में आता है और कई प्रकार में मूत्र पतला, अधिक और विशेषकर रात्रि में मूत्र त्याग अधिक होता है । इस रोग का रोगी साँस जल्दी-जल्दी लेता है। कई बार रोगी को अथवा चिकित्सक को इस रोग का पता तक नहीं चलता है।
किडनी में दर्द ( वृक्कशोथ ) का इलाज
नये (एक्यूट) रोग में जब मूत्र में एल्ब्यूमिन आ रहा है और शरीर पर सर्वांग-शोथ के लक्षण हो तो रोगी के पीड़ित वृक्क को आराम देने के लिए और विषैले दोष निकालने के लिए पसीना लाने वाली दवाएँ प्रयोग करें । तेज जुलाब और मूत्र लाने वाली दवाएँ देना उचित नहीं है।
रोगी को पसीना लाने के लिए गरम पानी में चादर को भिगोकर और निचोड़कर गर्दन तक यह चादर रोगी के चारों ओर लपेट दें। इसके ऊपर एक कम्बल डाल दें । इस क्रिया से 20 मिनट में ही खुलकर पसीना आ जाता है।
मूत्र बन्द हो जाने अथवा कम आने पर वृक्क स्थान पर गरम पानी की बोतल से सेंक करें ।
बहुत अधिक सर्दी से इस रोग से बचने के लिए रोगी गरम शहर में चला जाये तथा सर्द जल से स्नान न करे ।
रोगी को जौ का पानी (बार्ले वाटर) चावल का पानी अथवा अलसी की चाय पिलाना लाभकारी है । ठोस भोजनों के बदले सब्जियों का पकाया हुआ रस पिलायें। रोगी को आराम से बिस्तर में लिटाए रखना परम आवश्यक है। वातकारी अपच भोजन जैसे – आलू, मटर, अरबी, उड़द की दाल, गोभी, चावल रोगी को न खिलायें । शीघ्र पचने वाले जैसे – मांस का पका हुआ रस, फुलका (रोटी) या डबलरोटी, ठण्डी सब्जियां जैसे – कद्दू, टिण्डा, पालक और गाजर तथा सन्तरा आदि ही रोगी को खिलायें ।
बुमेट (मोण्टरी) आवश्यकतानुसार 1 मि.ग्रा. की 1 से 4 टिकिया प्रतिदिन खिलायें।
नोट – यकृत, अमूत्रता तथा गर्भावस्था में इसका प्रयोग न करें।
ग्रैमोनेग (रेनबैक्सी) – 2 टिकिया प्रत्येक 6-6 घण्टे के अन्तराल से कम से कम सात दिन तक खिलायें। नोट – यकृत रोग, तीव्र वृक्कपात, मिर्गी, श्वसन अवसाद में इसका प्रयोग बड़ी सावधानी पूर्वक करें।
मैण्डलामीन (वार्नर) – वृक्क शोथ के पुराने रोग तथा मूत्र संक्रमण में एक टिकिया प्रत्येक 6 घण्टे बाद कम से कम 1 मास तक खिलायें । नोट – यकृत क्षीणता एवं वृक्क अपर्याप्त (Renal Insufficiency) में इसका प्रयोग न करें ।
विशेष नोट – वृक्क शोथ के नये रोग में पीड़ित वृक्क और पुराने रोग में रोगी की साधारण अवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है ।