(1) बेहोशी, मूर्छा, अचेतनावस्था – इस औषधि के रोगी में थोड़ा-बहुत मूर्छाभाव या बेहोशी पायी जाती है, कभी पूरी बेहोशी, कभी कुछ-कुछ, परन्तु रोगी चेतन अवस्था में नहीं होता, मस्तिष्क की क्रिया में धीमापन आ जाता है। यह बेहोशी उग्र नहीं होती। स्टैमोनियम और बेलाडोना में डिलीरियम उग्र-अवस्था में होता है, परन्तु हेलेबोरस में डिलीरियम की शिथिल-अवस्था आ जाती है। उग्र-डिलीरियम में इसे नहीं देना चाहिये, उसमें लक्षणानुसार स्टैमोनियम या बेलाडोना देना चाहिये, परन्तु इसके बाद जब डिलीरियम मध्यम, शिथिल पड़ जाय, तब इस औषधि का समय आता है। डिलीरियम की प्रथम-अवस्था में जब वह उग्र होता है, तब स्टैमोनियम या बेलाडोना देकर, उसकी प्रबलता दूर होने पर, अगर रोगी अचेतनावस्था में, अज्ञान-भाव से पड़ा रहे, तब इसे दें। प्राय: देखा जाता है कि मस्तिष्क के उग्र-रोग कुछ देर प्रबलता दिखा कर शान्त हो जाते हैं, और फिर देर तक वेग-रहित होकर घिसटते रहते हैं, लम्बे हो जाते हैं। इस समय रोगी से प्रश्न किया जाय, तो बड़े धीरे-धीरे से उत्तर देता है, बेहोशी की हालत बढ़ती-बढ़ती वेदनाशून्यता में पहुंच जाती है, रोगी को कुछ अनुभव ही नहीं होता। उसकी मांस-पेशियां काम नहीं करतीं, अगर कुछ करना चाहता भी है तो कर नहीं सकता, इस प्रकार की पक्षाघात की-सी अवस्था आ जाती है। रोगी न कुछ कहता है, न कुछ करता है। इसे डिलीरियम न कह कर मूर्छा कहना ज्यादा उपयुक्त है। रोगी पड़ा रहता है। चिकित्सक आता है, तो उसकी तरफ टकटकी जमाये ताकता रहता है, भौंचक्का-सा, मूर्छित-सा कुछ न सोचता-सा। टाइफॉयड में ऐसी अवस्था आ जाती है जब रोगी बेहोशी में पड़ा रहता है। आस-पास क्या हो रहा है-इसका भी उसे ज्ञान नहीं रहता। जबड़ों को ऐसे हिलाता है जैसे कुछ चबा रहा हो। बेहोशी में बिस्तर को या होंठों को कुरेदता रहता है, नाक में अंगुली ढूंसता रहता है, कभी-कभी नींद में चिल्ला उठता है, चौंक उठता है। हेलेबोरस में रोगी नाक में अंगुली अनजाने में ठूंसता है, परन्तु अगर पूरे ज्ञान के साथ, जानता-बूझता ठूंसे तो एरम ट्रिफ़ दवा है।
(2) रह-रह कर चीख उठता है, सिर को तकिये पर इधर-उधर डोलाता है – रोगी रह-रह कर चीख उठता है और सिर को तकिये पर इधर-उधर फेरता है। ऐसी अवस्था मैनिनजाइटिस में होती है (मस्तिष्क की आवरक झिल्ली के प्रदाह में), हाइड्रोसेफेलस में होती है (मस्तिष्क के जलंधर या मस्तिष्क में जल संचित हो जाने में) – इस प्रकार का चीख उठान एपिस में भी पाया जाता है, परन्तु एपिस का प्रयोग रोग की प्रथम-अवस्था में होता है, जब रोगी इस योग्य होता है कि शरीर का कपड़ा उतार फेंके। जब रोगी अत्यन्त शिथिल हो जाता है, मानसिक अवस्था इतनी शिथिल हो जाती है कि शरीर पर ओढ़न है या नहीं इसका भी ज्ञान नहीं रहता, तब हेलेबोरस दिया जाता है। इसके अतिरिक्त एपिस में प्यास नहीं होती, हेलेबोरस में प्यास ज्यादा है।
(3) एक हाथ और एक पैर बार-बार उठाना-फेंकना – इसका एक ‘विचित्र-लक्षण’ यह है कि रोगी एक हाथ और एक पैर बार-बार उठाता फेंकता है, दूसरा हाथ और पैर निश्चल पड़ा रहता है। यह क्रिया अपने-आप चला करती है। यह लक्षण एपोसाइनमन में भी है। ब्रायोनिया में रोगी बायां हाथ और पैर चलाता है। जिंकम में दोनों पैरों को हिलाता रहता है।
(4) शक्ति तथा प्रकृति – मूल अर्क, 1, 3, 6, (औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है)