जिन वृद्ध मनुष्यों के रुधिर की गति मन्द पड़ गई हो, शराब पीने और अधिक विहार आदि कुक्रियाओं से जिनका स्वास्थ्य बिगड़ गया हो और नगें निस्तेज हो गई हों, अक्सर उन्हीं में या उनकी सन्तान में ऐगारिकस के लक्षण पाये जाते हैं। ऐगारिकस रोगी अत्यन्त शीत प्रधान (Chilly patient) होता है। साधारणतया से लोग इन्हें कहते हैं कि ‘खून की ताकत घट गई है इस लिए अब ठण्ड बरदाश्त नहीं होती इत्यादि।’ इस प्रकार के दुष्कर्मों से जिनकी सिर्फ़ खून की ताकत ही नहीं घट गई है, बल्कि नाड़ियां भी निस्तेज हो गई हैं, सिर के बाल झरने लगे हैं, शरीर का माँस और चमड़ी ढीले पड़ गए हैं, उन्हीं में नाना प्रकार के स्नायुविक लक्षण दिखाई देते हैं। तन्दुरुस्ती की हालत में ऐगारिकस को अधिक मात्रा में सेवन करने से जो सब लक्षण प्रकट होते हैं वे ही लक्षण यदि पूर्वोत्त दुष्कर्म, बुढ़ापा या पैतृक कमज़ोरी के कारण रोगादि में मिलें, तो ऐगारिकस का प्रयोग होता हैं। यहाँ पर मैं कह देना चाहता हूँ कि लक्षणसमष्टि (Totality of symptoms) न मिलने पर, सिर्फ़ वृद्धावस्था, शराबी या स्नायु-दौर्बल्य होने ही से ऐगारिकस का प्रयोग नहीं किया जा सकता। बहुतेरे पैथोलाजी (Pathology) अर्थात निदानतत्व की तरफ़ से ऐसा दिखाते हैं कि मानों सत्य है, परन्तु मैं विवेचक शिक्षार्थियों को उनके हित के लिये पहले ही से सावधान किये देता हूँ कि होमियोपैथिक औषधि के निर्वाचन में रोग का नाम और निदान आवश्यक नहीं होता। लक्षणसमष्टि ही रोग है। इसीलिए होमियोपैथी के सब अच्छे-अच्छे ग्रन्थों में शिक्षार्थी को सावधान करने के लिये बार बार कहा गया है -‘यदि लक्षण समष्टि सदृश हो।’
वास्तव में बुढ़ापे में ऐगारिकस कब उपकारी होगा? जब ऐगारिकस की व्यापक, अस्वाभाविक और स्थानीय लक्षणसमष्टि उस रोग की लक्षणसमष्टि के सदृश होगी, तब। बुढ़ापे के रोग की औषधि कहने से हम सिर्फ़ ऐगारिकस का ही क्यों, एम्ब्रा, आरम, बैराइटा कार्ब, कोका, काली कार्ब, लाइको, ओपियम, सिकेल, एलो इत्यादि और भी कितने ही औषधियों के नाम ले सकते हैं। शराबियों की औषधि कहने से आर्सेनिक, सलफ्यूरिक ऐसिड इत्यादि कितने ही हो सकती हैं। परन्तु किसी भी उपस्थित क्षेत्र में सही औषधि निर्वाचन करने के लिए विद्या, बुद्धि, विवेचना और समय की आवश्यकता होती है। समविधान मन्त्र का उपासक होकर बहुत दिनों तक साधना करने से ही समविधान तन्त्र के प्रैक्टिस में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। प्रैक्टिस करने में कितनी गणवेषण और विचार उपेक्षित है उन्हें यथार्थ रूप से शिक्षित चिकित्सक के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं सकता। साधना का अर्थ है होमियोपैथिक विज्ञान (Organon of medicine) को अच्छी तरह से समझ कर पढ़ना और न्यूटन (Newton) की तरह तत्व जिज्ञासु होना। सेब के फल को जमीन पर गिरते हुए देख कर साधारण तुच्छ घटना का ख्याल कर के न्यूटन यदि यह प्रश्र न करते कि-‘फल ज़मीन पर क्यों गिरा?’ तो भूमध्याकर्षण शक्ति अविष्कृत नहीं होती। उसी प्रकार किसी औषधि को अच्छी कहने पर, यदि ‘क्यों अच्छी है ?’ प्रश्र न किया जाए या समझने की कोशिश न की जाए, तो समलक्षण तत्व का गूढ़ रहस्य हमेशा के लिए हम लोगों से छिपा रहेगा।
दयालु महापुरुष हैनिमैन ने अपने देवतुल्य चरित्र के निर्दशन स्वरूप समलक्षण तत्व का रहस्य कुछ भी छिपा नहीं रखा है। केवल एक ही औषधि का, समलक्षण तत्व के अनुसार, बहुत ही थोड़ी मात्रा में प्रयोग करना ही-आरोग्य का मूल मन्त्र है। इस मूल मन्त्र को भूलने से पूर्ण आरोग्य नहीं हो सकता। केवल एक ही औषधि निर्धारित होनी चाहिए, इसी को समझाने के लिए इतनी बातें कहनी आवश्यक हुई अर्थात् बुढ़ापे का रोग सुनते ही कितनी ही औषधियों के नाम याद हो उठेंगे, उनमें केवल एक ही औषधि का, जो कि यथार्थ में रोग सदृश है चुनने के लिए सूक्ष्म विचार आवश्यक है।
आज कल तो होमियोपैथिक औषधियों की पेटी और एक-दो निकम्मी होमियोपैथिक पुस्तकें घर-घर विराज रही हैं और बहुतेरे बिन पढ़े होमियोपैथ बन बैठे है। ऐसे शौकीन होमियापैथ अक्सर आकर अपनी सम्मति भी प्रकट करते हैं कि अमुक अमुक औषधि अमुक अमुक रोगों के लिए बहुत अच्छी है, यदि उन से पूछा जाता है कि ‘क्यों अच्छी है?’ तो उनके दिमाग चकराने लगते हैं। इतनी बातें कहने की इसलिए आवश्यकता हुई कि साधारण मानव मन तरल पदार्थ की तरह निम्नगामी होता है, आलस्य ही इसका मूल है। अतएव ऐसे चिकित्सक होने से तुम कभी भी आदर्श उपचार (Ideal cure) नहीं कर सकोगे |
ऐगारिकस रोगी को बहुत ठण्ड मालूम होती है (He is a chilly patient)। शरीर के किसी भी स्थान की माँसपेशी का या हाथ-पैरों का कांपना इसका सर्वप्रधान लक्षण है। परन्तु जागते ही में कांपना और नींद आते ही बन्द हो जाना, इसका विशेष लक्षण हैं। सिर सदैव कांपता है, सोने पर बंद हो जाता है। कभी शरीर के हर एक अंग में इस कदर झनझनाहट और कम्पन होने लगता है कि तान्डव रोग के (Chorea) सारे लक्षण प्रकट होते हैं (चेहरे की मांस पेशी का कम्पन, माइगेल)।
ऐगारिकस में कैल्केरिया और नैट्रम म्यूर दोनों ही के लक्षण पाए जाते है; बच्चे का देर में चलना सीखना कैल्केरिया का लक्षण है, देर में बोलना सीखना नेट्रम का लक्षण है; ऐगारिकस में बच्चा चलना और बोलना दोनों ही देर में सीखता है। बच्चा हड्डियों की कोमलता और परिपोषण के अभाव के कारण जल्द खड़ा नहीं हो सकता। बालक के मन की पुष्टि बहुत देर में होती है, सब बातें सीखने में उसे बहुत देर लगती है, ग़लतियां बहुत करता है और उसे कुछ याद नहीं रहता। थोड़ी उम्र के बालक या डरपोक बालिका को डांटने से मूर्छा आ जाती है ।
ऐगारिकस रोगी का मन और मस्तिष्क निस्तेज हो जाते हैं। यह मूर्खों की तरह होता है, विशेष करके सुबह के समय वह कोई नया विषय समझ नहीं सकता, मगर शाम के वक्त उसकी बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। बेहोशी में शराबी की तरह चिल्लाता और बड़बड़ाता है। कभी कभी मुँह से सीटी बजाता है, बात का जवाब नहीं देता। छन्दों की रचना करता है, भविष्य में क्या होगा वह कहता है, लगातार बकता रहता है। कभी कभी मूर्ख की तरह काम काज में बेपरवाही और बेढंगापन प्रकट करता है और कभी कभी सूक्ष्मबुद्धि का परिचय देता है। नम्र और धीर स्वभाव का मनुष्य कभी कभी ज़िद्दी और अहंकारी हो जाता है। डरपोक दुर्बल स्नायु का मनुष्य लिखने पढ़ने के समय अपनी गलतियां और लिखने के दोष को जल्दी समझ जाता है। अधिक मानसिक परिश्रम और लिखने पढ़ने से मन की चंचलता होती है। ज़रा ही में उत्तेजना या उदासी आ जाती है। कोई काम करने को कहा जाए, तो उसके विपरीत कर बैठता है।
मानसिक परिश्रम करने से शरीर में सुंई का चुभना, खुजली या कीड़े का रेंगना मालूम पड़ता है, जिनमें शारीरिक परिश्रम से कमी मालूम होती है। सारे शरीर पर या किसी किसी स्थान पर ठण्ड मालूम होती या ठण्ड़ी अथवा गर्म सूई के चुभने की तरह दर्द मालूम होता है। कान, नाक, हाथ और पैर की अंगुलियों के पीछे की तरफ़ जहाँ पर खून का दौरा बहुत कम होता है, डंक मारने की तरह दर्द होता है या जलन होती है। सारे शरीर में खुजली होती है, एक स्थान पर खुजलाने से दूसरे स्थान में खुजली होने लगती है। सारे शरीर में यहाँ तक कि माँस के अन्दर भी चींटियों का रंगना मालूम पड़ता है। बर्फ़ की जलन की तरह सारे शरीर में सुर्ख दाग हो जाते हैं और उनमें खुजली होती है। ठण्ड लग कर बिवाई (Chilblains) हो जाने से उस में बेहद खुजली और जलन होती है।
रोगी आसानी से चल फिर नहीं सकता, बार बार ठोकर खाकर गिर पड़ता है। इसमें रीढ़ की हड्डी विशेष भाव से प्रभावित होती है, ज़रा भी चलने फिरने से उसमें दर्द होता है, रीढ़ की हड्डी के किसी भी भाग पर हाथ लगाने से दर्द होता है। थेरीडियन और चिनिनम सल्फ़ में भी यह लक्षण है। अधिक मैथुन का कारण रीढ़ की हड्डी में दर्द होता है (कैलि-फॉस)। रीढ़ की हड्डी को दबाने से हँसी का आना इसका एक अद्भुत लक्षण है।
संभोग के बाद रोग की वृद्धि होती है, चक्कर आते हैं, दुर्बल स्त्रियां मूर्छित हो जाती हैं।
पेट ख़ाली मालूम पड़ता है मगर कुछ खाने की इच्छा नहीं होती।
डकार में सेब के फल की गन्ध, दाँतों का अस्वाभाविक तथा बड़ा अनुभव करना, पेशाब करते समय पेशाब का ठण्ड़ा मालूम पड़ना इत्यादि अस्वाभविक लक्षणों को समझने ही से ऐगारिकस नाम जुबान पर आ जायगा।
साधारण चिकित्सक स्त्रियों के जरायु के बाहर निकल पड़ने के बारे में सुनते ही सिपिया, लिलियम, म्यूरेक्स इत्यादि का प्रयोग करते हैं। मगर वृद्धा स्त्रियों के जरायु बाहर निकलने और लक्षण मिलने पर ऐगारिकस देना चाहिए। लक्षण मिलने पर अर्थात् जरायु के लक्षणों के अलावा अन्य सब लक्षणों की समष्टि द्वारा ऐगारिकस सूचित होने पर। जैसे यदि वह वृद्धा स्त्री ठण्डक से बहुत डरती हो, उसकी गर्दन काँपती हो और वह कम्पन निद्रित अवस्था में बन्द हो जाता हो। वह अनुभव करती हो कि मेरे शरीर के किसी किसी स्थान पर बर्फ़ लग रहा है या अत्यन्त ठण्डी गर्म सुई चुभ रही है। इत्यादि तभी उसके जरायु के वास्तव में बहार निकल पड़ने पर या निकल पड़ेगा ऐसा मालूम होने पर ऐगारिकस दे सकते हो।
शराबी और अधिक मैथुन करने वाले मनुष्य जो थोड़े बुख़ार में बेहोश की तरह बकते हैं, जिनकी रीढ़ प्रभावित होती है, जो लोग शरीर, माँस पेशी और चेहरे के कम्पन रोग से पीड़ित हैं, उनके सिर की तकलीफ़ में ऐगारिकस के लक्षण रहते हैं।
टाइफस, टाइफायड इत्यादि बुख़ार में ऐगारिकस का रोगी बेहोशी की हालत में बिछौन पर से ज़बरदस्ती उठ बैठना चाहता है, लगातार बड़बड़ाता है, सीटी देता है, गीत गाता है इत्यादि।
बर्फ़ की जलन और उस स्थान में लगातार खुजली और जलन होने से , कोहरे में भीग कर या ठण्ड लगकर बीमार होने से ऐगारिकस के लक्षण पाये जाते हैं। कान, नाक और हाथ पैर में जलन और खुजली होती है।
कमर का दर्द बैठे रहने से या दिन में काम काज करने से बढ़ता है।
चर्म रोग के दब जाने पर मिरगी रोग उत्पन्न होता है (सोरि, सल्फ) ।
सुबह से दोपहर के 12 बजे तक रोगी अपने को कमज़ोर और सुस्त अनुभव करता है।
माता का दूध रुक जाने पर मस्तिष्क और रीढ़ का प्रदाह उपस्थित होता है।
पुरानी खाँसी में बहुत सी छींके आने पर खाँसी बन्द हो जाती है।
बहुत ज़ोर देने पर भी मल नहीं निकलता, मगर निराश हो जाने के बाद अपने आप मल निकल पड़ता है (केवल आर्ज-नाइट्र में मल और मूत्र का यह लक्षण है)। ज्योंही पाख़ाने की हाजत होती है, त्योंही पेशाब की भी हाजत होती है।
आँखें हिलती हैं, रोगी आँखें बार बार खोलता और बन्द करता है, घड़ी के लटकन (Pendulum) की तरह आँख को इधर उधर घुमाता है (सिक्यू, आर्स, सल्फ़, पल्स)। आँख के सामने काली मक्ख्यिाँ, काले दाग, कोहरा और मकड़ी का जाला दिखाई देता है। एक वस्तु की दो दो वस्तुएं दिखाई देती हैं। पढ़ नहीं सकता, अक्षर मानों हटते जाते हैं। तरह तरह के रंग और सूरतें दिखाई देती हैं। आंख की पलकें फ़ड़कती हैं।
सम्बन्ध – शराबियों की बेहोशी में ऐक्टिया, कैना-इन्ड, हायोस, कैलि-फ़ास, लैक, नक्स-वोम, ओपि और स्ट्रैमो के साथ सम्बन्ध है। कोरिया (Chorea) में माइग, टैरेन और जिंकम के साथ सम्बन्ध हैं।
वृद्धि (Aggravation) – खाने के बाद; मैथुन के बाद, ठण्ड़ी हवा से; मानसिक परिश्रम से, आंधी और बिजली के कड़क के पहले (फास, सोरि)।
मात्रा (Dose) – 3, 30, 200 शक्ति।