गले की थाइराइड ग्रन्थि के बढ़ जाने पर यह रोग होता है । ‘गिल्लड़’ सख्त होता है । इस रोग में गले में संकोचन होता है । इस रोग के रोगी का शरीर टी. बी. के रोगी की भाँति क्षीण होता चला जाता है, परन्तु उसकी भूख बढ़ती चली जाती है। इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं :-
आयोडियम 3, 30, 1M – यह इस रोग की मुख्य औषध मानी जाती है। इसके ‘मूल-अर्क’ का प्रयोग भी किया जाता है। रोगी के शरीर का मांस क्षीण होते जाना, गिल्लड़ का बढ़ जाना तथा गले में संकोचन का अनुभव होने पर इसका प्रयोग करें । इसे उच्च शक्ति ‘1M’ में देने से अधिक लाभ होने की आशा की जाती है ।
ब्रोमियम 1M – ‘आयोडियम’ से लाभ न होने पर इसे दें । गिल्लड़ का बढ़ा हुआ होना, रोगी का दायीं ओर को न लेट पाना तथा दायीं ओर लेटने पर हृदय धड़कता हुआ-सा प्रतीत होना-इन लक्षणों में लाभकारी है ।
थाइराइडीनम 3x, 6x – पूर्वोक्त दोनों औषधियों से लाभ न होने पर इसे देना चाहिए। यदि अन्य औषधियों के प्रयोग से गिल्लड़ घट गया हो, परन्तु पूरी तरह ठीक न हुआ हो, तब भी इस औषध का प्रयोग लाभ करता है । परन्तु यदि इसके प्रयोग से कोई बुरा प्रभाव दिखायी दे तो इसे देना तुरन्त ही बन्द कर देना चाहिए।
कैल्केरिया-कार्ब 30 – यह मोटे शरीर वाले मनुष्यों के गिल्लड़ में लाभकर हैं। थुलथुल शरीर, पीला चेहरा, हाथ-पाँव ठण्डे, पसीने से खट्टी गन्ध आना तथा रोगी का सर्दी सहन न कर पाना एवं गर्मी पसन्द करना-इन लक्षणों में यह औषध लाभकारी है।
स्पंजिया 2x, 3 – गले में लगातार सुई चुभने जैसा अनुभव, गिल्लड़ का पुराना और कठोर हो जाना, गिल्लड़ का बढ़ा हुआ होना तथा रोगी का शरीर क्षीण होना-इन लक्षणों में हितकर है ।
फ्लोरिक-एसिड 6, 30 – पूर्वोक्त औषधियों से लाभ न होने पर, इसे देकर देखना चाहिए ।