विवरण – यह एक तीव्र-यन्त्रणादायक रोग है। हृद्पेशी की पोषक-धमनी का रुक जाना अथवा हृद्पेशी में किसी अन्य प्रकार की विकृति आदि कारणों से यह बीमारी होती है। यह रोग प्राय: मध्यमावस्था के बाद ही अधिक होता है तथा स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक पाया जाता है ।
वात-रोग, उपदंश, दीर्घकालीन मानसिक उद्वेग, अत्यधिक धूम्रपान अथवा मद्य-पान आदि इस रोग के उत्तेजक कारण होते हैं । कभी-कभी यह बीमारी वंश परम्परागत रूप में भी पायी जाती है ।
इस बीमारी में अचानक ही हृत्पिण्ड से दर्द आरम्भ होकर बाँयें कन्धे तक तथा वहाँ से सम्पूर्ण बाँह में होता हुआ अंगुली के नख के अग्रभाग तक फैल जाता है। यह रोग प्राय: रात के समय ही होता है, दिन में शायद ही होता है । अपान-वायु के नि:स्सरण, अत्यधिक पेशाब अथवा वमन होने पर इस रोग की तकलीफ प्राय: घट जाया करती है ।
इस बीमारी में श्वास की गति तीव्र हो जाती है, चेहरा ठण्डा पड़ जाता है एवं उत्कण्ठा, ठण्डा पसीना आना, रक्त-हीनता, मूर्च्छा आदि उपसर्ग दिखायी देते हैं। इस रोग का आक्रमण आधा सेकेण्ड से लेकर आधा घण्टे तक अथवा इससे भी अधिक समय तक स्थायी रह सकता है। इस रोग के पहले ही आक्रमण में मृत्यु हो जाने की सम्भावना रहती है, जिसे ‘हार्ट-फेल’ कहते हैं ।
अत्यधिक शारीरिक-परिश्रम, अत्यधिक चिन्ता, अत्यधिक धूम्रपान, अधिक पानी पीना, आवेश, अग्निमान्द्य अथवा कब्ज आदि कारणों से यह बीमारी अचानक उत्पन्न हो जाती है। एकाएक ही हृदय में शूल इतनी तेजी के साथ होता है कि रोगी उसकी वेदना से छटपटाने लगता है तथा अपने जीवन की आशा त्याग बैठता है । शरीर का रंग राख के रंग जैसा हो जाता है। नाड़ी तीव्र तथा अनियमित हो जाती है। सम्पूर्ण शरीर में पसीना आता है तथा दर्द बाँयें कन्धे से बाँयीं बाँह तक फैल जाता है। कभी-कभी रोगी दर्द घटाने के लिए भी साँस को रोकने का प्रयत्न करता है। रोगी-अवस्था में प्राय: रोगी तकलीफ के कारण छटपटाता रहता है ।
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग हितकर है :-
लैट्रोडैक्टस 12x – डॉ० विलियम के मतानुसार यह हृदय-शूल की अत्युत्तम औषध है। जिन लोगों को कभी-कभी दिल में दर्द होकर परेशानी हो जाती हो, उन्हें यह औषध दिन में 2-3 बार लेते रहने से फिर दिल का दौरा नहीं पड़ता ।
ऐकोनाइट 3, 30 – सर्दी लग कर होने वाली बीमारी तथा मृत्यु-भय – इन लक्षणों के रहने एवं रक्त-प्रधान लोगों के नये हृद्-शूल में श्वासावरोध की सम्भावना होने पर इसका प्रयोग लाभकारी है ।
सिमिसिफ्यूगा 30 – बाँयें हाथ तथा बायीं बाँह में दर्द का फैल जाना, नाड़ी का कमजोर, अनियमित तथा काँपती हुई.प्रतीत होना, दर्द का सम्पूर्ण शरीर में फैल जाना तथा हृत्पिण्ड की क्रिया के बन्द हो जाने जैसे लक्षणों में हितकर है ।
क्रेटेगस Q – असह्य दर्द, बाँयें हाथ तथा बाँह में दर्द का फैलना, कलेजे में धड़कन, श्वास-कष्ट एवं नाड़ी की तीव्रता-इन लक्षणों में इस औषध के मूल-अर्क को 5 से 10 बूंद तक की मात्रा में पानी के साथ देना चाहिए।
आरम 6 – मृत्यु-भय तथा छाती में दबाब के साथ दर्द का अनुभव होने पर इसे दें।
नक्स-वोमिका 3x, 30 – पाकाशय की क्रिया की गड़बड़ी के कारण हृदयशूल होने पर इसका पयोग करें ।
ग्लोनाइन 3, 30 – सम्पूर्ण शिराओं में टपक का अनुभव, श्वास-प्रश्वास में कष्ट, तीव्र दर्द एवं सिर-दर्द के लक्षणों में इसका प्रयोग करें ।
स्पाइजिलिया 3, 6 – कलेजे में धड़कन, नाड़ी का कोमल, महीन अथवा कड़ा-मोटा होना, अनियमित-नाड़ी एवं मूर्च्छा के भाव में इसका प्रयोग हितकर है।
कैल्मिया 3, 6 – पीठ की फलकास्थि में तीव्र-वेदना के साथ हृदय-शूल के लक्षणों में प्रयोग करें ।
एसिड-हाइड्रो 3 – अधिक तथा बार-बार कलेजा धड़कना, नाड़ी की क्षीणता, अधिक व्याकुलता तथा मूर्च्छावेश में इसका प्रयोग हितकर है।
कैक्टस 1x – हृत्पिण्ड को चिमटे से जकड़े रखने जैसा अनुभव तथा हृत्पिण्ड की अकड़न में हितकर है।
आर्स-आयोड 3x – हृत्पिण्ड की दुर्बलता के साथ पाकाशय की गड़बड़ी के लक्षण में इस औषध को 2 ग्रेन की मात्रा में सेवन करें । इसे पानी में मिला कर नहीं लेना चाहिए ।
आर्सेनिक 30, 200 – नाड़ी का क्षीण तथा विषम होना, चेहरा मलिन होना, आँखों का गड्ढे में धँस जाना, जलन करने वाला दर्द, अत्यधिक सुस्ती, कमजोरी के साथ अत्यधिक कष्ट एवं मृत्यु-भय के लक्षणों में इसका प्रयोग करें।
बेलाडोना 3 – कलेजे का धड़कना, रात में नींद न आना, अस्थिरता, परन्तु नाड़ी का पूर्ण रहना – इन लक्षणों में प्रयोग करें।
मैग्नेशिया-फॉस 3x – इस औषध को 3 ग्रेन की मात्रा में गरम पानी के साथ बार-बार सेवन करने से हृदय-शूल में तुरन्त लाभ दिखायी देता है।
आर्निका 3, 6, 30 – हृदय-प्रदेश में जख्म की भाँति दर्द तथा असह्य-दर्द के लक्षणों में प्रयोग करें ।