परिचय : 1. इसे दारुहरिद्रा (संस्कृत), दारुहल्दी (हिन्दी), दारुहरिद्रा (बंगला), दारुहलुद (मराठी), दारुहलदर (गुजराती), मरमंजल (तमिल), कस्तुरीपुष्प (तेलुगु), तथा बर्नेरिस एरिस्टेटा (लैटिन) कहते हैं।
2. दारुहल्दी का पौधा हरा, काँटों से भरा झाड़नुमा होता है। दारुहल्दी के पत्ते मजबूत, धारदार काँटों से युक्त, लट्टू के आकार के होते हैं। फूल पीले रंग के होते हैं। फूलों की मंजरी 2-3 इंच लम्बी होती है। फल किशमिश की तरह नीलापन लिये लाल रंग के छोटे-छोटे होते हैं। तने की छाल अन्दर से गहरे पीले रंग की होती है।
3. यह हिमालय प्रदेश में 2-12 हजार फुट की ऊँचाई पर होती है।
4. दारुहल्दी की 12-13 जातियाँ मिलती हैं।
रासायनिक संघटन : इसकी जड़ तथा लकड़ी में पीले रंग का कड़वा एल्केनायड बर्वेरिन होता हैं।
दारुहल्दी के गुण : यह स्वाद में कड़वी, कसैली, पचने पर कटु तथा हल्की, रूखी और गर्म है। इसका मुख्य प्रभाव पाचन-संस्थान पर यकृत-उत्तेजक रूप में पड़ता है। यह शोथहर, पीड़ा-शामक हल्की विरेचक, तृष्णाशामक, रक्तशोधक, कफहर, गर्भाशय-शोथ-स्रावहर, स्वेदजनक, ज्वरहर तथा कटु-पौष्टिक है।
दारुहल्दी के उपयोग ( daruhaldi benefits in hindi )
1. कामला : दारुहल्दी को पीसकर शहद के साथ देने से कामला ठीक होता है।
2. प्रमेह : 1 सेर दारुहल्दी को 16 सेर पानी में उबालें। जब अष्टमांस जल-भाग रहे, तब छान लें। उसे 2 सेर आँवले के स्वरस में धीरे-धीरे डालते हुए घोटें। पानी जल जाने पर वह 6 माशा से 1 तोला तक मधु के साथ देने से समस्त प्रमेह दूर हो जाते हैं।
3. श्वेत प्रदर : श्वेत-प्रदर में दारुहल्दी की छाल के स्वरस को मधु के साथ देने से लाभ होता है। इसके क्वाथ से मुखरोग में भी लाभ होता है।
4. नेत्ररोग : दारुहल्दी के काष्ठ का चूर्ण बनाकर छान लें। उसमें दूध मिलाकर पकायें। नेत्र पर इसका लेप करने से शोथ, लालिमा, वेदना आदि सब कुछ ठीक हो जाता है।