विवरण – ऋतुस्राव के समय अधिक परिमाण में खून निकलना, ऋतुस्राव का अधिक दिनों तक होते रहना, सप्ताह में दो अथवा इससे अधिक बार ऋतुस्राव होना-ये सभी लक्षण ‘अति रजः’ के हैं । जरायुग्रीवा अथवा डिम्बकोष में रक्तसंचय, अधिक मैथुन, अधिक मानसिक-चिन्ता, अधिक मात्रा में पौष्टिक खाद्य का सेवन तथा बार-बार (जल्दी-जल्दी) गर्भ धारण करना – इन कारणों से यह रोग होता है। इसमें आलस्य, शरीर टूटना, शरीर में दर्द, सिर में भारीपन और दर्द, पीठ तथा कमर में दर्द, पाँव के तलवों का ठण्डा होना और उनमें ठण्ड का अनुभव, आँखों का गड्ढे में धंस जाना, अधिक खून निकल जाने के कारण चेहरे पर पीलापन, हाथ-पाँवों का ठण्डा होना, नाड़ी की क्षीणता, दृष्टि-क्षीणता, कानों का बन्द होना तथा मूर्च्छा आदि लक्षण दिखाई देते हैं ।
चिकित्सा – इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग करें:-
हाइड्रैस्टिस 1x – डॉ० वाफोर्ड के मतानुसार यह इस रोग की श्रेष्ठ औषध है। कभी-कभी जरायु में ट्यूमर (अर्बुद) हो जाने के कारण भी अधिक स्राव होता है, यह उसमें भी लाभ करती है ।
हाइड्रैस्टिनाइन Q, 1x – यह भी इस रोग की उत्तम औषध है ।
चायना 6, 30 – अधिक मात्रा में तथा अधिक देर तक होने वाले रज:स्राव की मुख्य औषध है। समय से पूर्व तथ अधिक परिमाण में होने वाला ऋतुस्राव, रक्तस्राव की अधिकता के साथ ही दर्द, रक्त में काले रंग के थक्के निकलना आदि लक्षणों में हितकर है। इन लक्षणों के साथ ही यदि रोगी अत्यन्त दुर्बल तथा क्षीणकाय भी हो तो पहले इसका प्रयोग करना चाहिए। बिना दर्द के अधिक परिमाण में पतले या गाढ़े रंग का स्राव, रज:स्राव के कारण कमजोरी, जरायु-मुख पर जलन, कान में भों-भों की आवाज आना तथा हर तीसरे दिन रोग में वृद्धि होने के लक्षणों में हितकर है।
हैमामेलिस – अधिक रक्तस्राव में ‘चायना 6’ के साथ इस औषध को भी पर्यायक्रम में देते रहने से शीघ्र लाभ होता है । चोट लगने के कारण होने वाले अधिक रक्तस्राव में इसकी 3x शक्ति बहुत लाभ करती है।
थ्लैस्पिवर्सा-पैस्टोरिस Q – आरम्भ में ऋतुस्राव का थोड़ा-थोड़ा तथा धीरे-धीरे होना, परन्तु कुछ देर बाद ही इतनी अधिक मात्रा में होना कि उसके कारण रुग्णा अत्यन्त दुर्बल हो जाये और संभल न सके एवं 8 से 15 दिन तक रज:स्राव होते रहने के लक्षणों में इस औषध को नित्य दो-तीन बार 10 बूंद की मात्रा में देना चाहिए।
कैल्केरिया-कार्ब 6, 30, 200 – ऋतुस्राव का समय से पूर्व तथा अत्यधिक परिमाण में होने पर लाभकारी है, परन्तु इसके लिए रुग्णा की प्रकृति पर ध्यान देना आवश्यक है। शरीर थुलथुला तथा मोटा होना, सिर पर पसीना आना, पाँवों का ठण्डा तथा चिपचिपा रहना एवं शरीर से खट्टी गन्ध आना-ऐसी प्रकृति एवं लक्षणों से युक्त अति-रज:स्राव वाली स्त्री को ही यह औषध देनी चाहिए। रज:स्राव से बहुत समय पूर्व योनि-द्वार में खुजली तथा श्वेत-प्रदर की रुग्णों के लिए यह विशेष हितकर है।
बोरैक्स 6 – ऋतुस्त्राव का समय से पूर्व तथा अत्यधिक परिमाण में होना, जी मिचलाना, पेट में ऐंठन, पेट से दर्द उठकर पीठ तक जाना, जननांग की श्लैष्मिक झिल्ली के कारण ऋतुस्राव के समय दर्द होना तथा इसी कारण गर्भ न ठहर पाना-इन सब लक्षणों में इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
इपिकाक 3, 6, 30 – मतली अथवा बिना मतली के अत्यधिक रज:स्राव और रज:स्राव में चमकीले, लाल रंग का खून निकलने पर इसका प्रयोग करें । प्रसव के बाद वाले आकस्मिक-रज:स्राव में विशेष हितकर हैं ।
फेरम-मेट 6 – जरायु से बड़े-बड़े थक्के निकलना, समय से बहुत पूर्व अत्यधिक परिमाण में तथा बहुत अधिक समय तक रज:स्राव का जारी रहना, रुग्णा का कोमल तथा कमजोर होना, परन्तु उसके मुँह पर ऐसी झूठी लाली का होना, जिसके कारण वह बहुत स्वस्थ लगती हो, लेकिन यथार्थ में शरीर में रक्त की कमी हो-इन सब लक्षणों में यह औषध अत्यन्त लाभप्रद है।
मैग्नेशिया-कार्ब 3, 6, 30 – सामान्यत: ऋतुस्राव का देर में तथा थोड़ा होना, जमा हुआ तथा काले रंग का रक्त निकलना, रोगिणी के खड़े हो जाने पर रज:स्राव का बन्द हो जाना, परन्तु लेटते समय रक्तस्राव आरम्भ हो जाना तथा सोते समय रक्तस्राव होना – इन लक्षणों में इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
कैमोमिला 12, 30 – यदि मानसिक-विक्षोभ के कारण रज:स्राव अधिक हो, स्राव काला तथा थक्केदार हो एवं रोगिणी के स्वभाव में चिड़चिड़ाहट भी हो तो इस औषध को देना चाहिए । स्वभाव में चिड़चिड़ाहट न होने पर यह औषध नहीं दी जाती । ऋतु के पूर्व प्रसव-वेदना जैसा तीव्र दर्द, दाने भरा रक्तस्राव तथा रह-रह कर दर्द होने के लक्षणों में भी हितकर है ।
नक्स-वोमिका 30 – ऋतुस्राव का समय से पूर्व तथा अधिक मात्रा में होना एवं कई दिनों तक जारी रहना, पहला स्राव समाप्त होने से पूर्व ही दूसरे ऋतुस्राव का समय से आ जाना-इन लक्षणों में यह औषध बहुत लाभ करती है। इस औषध की रोगिणी काम में लगी रहती है तथा शीत-प्रधान होती है, वह ठण्ड को बर्दाश्त नहीं कर पाती ।
आर्स-आयोड 3, 200 – जलन उत्पन्न करने वाले प्रदर के साथ अतिरज: की पुरानी बीमारी में हितकर है ।
आर्सेनिक 6 – शारीरिक-दुर्बलता एवं गर्भाशय की क्रिया में विकार के कारण अधिक दिनों तक ठहरने वाले रज:स्राव में लाभकर है ।
पल्सेटिला 6 – गर्भावस्था में अथवा प्रसव के अन्त में, रजो-निवृत्त के समय पीठ तथा तलपेट के दर्द में लक्षणों वाले अतिरज: में लाभकारी है ।
सैबाइना 6 – मूत्र-यन्त्र का प्रदाह, डिम्बाशय में दर्द, क्षीण-दृष्टि तथा लाल रंग के अतिरज: में यह लाभकर है । मोटी-ताजी स्त्रियों के विशेष लाभ करती है ।
क्रोकस-सैटाइवा 3 – सदैव अधिक परिमाण में दर्द वाला रज:स्राव होना, कभी थक्का-थक्का और कभी दुर्गन्धयुक्त रक्त-स्राव, थोड़ा-सा हिलने-डुलने पर ही बढ़ जाने वाला रक्तस्राव, सम्पूर्ण शरीर का ठण्डा होना, परन्तु भीतर से गर्मी का अनुभव, जरायु-मुख पर चींटी रेंगने जैसी सुरसुराहट, पेट में दर्द तथा योनि की ओर दबाव के साथ ही काले रंग का तारकोल जैसा थक्के भरा स्राव होना – इन सब लक्षणों में यह औषध लाभ करती है । स्राव बन्द रहने के समय ‘चायना 6’ तथा स्राव चलते समय ‘क्रोकस 3’ का प्रयोग करने से अधिक लाभ होता है ।
प्लैटिना 6 – गाढ़े अलकतरे (तारकोल) जैसा अधिक परिमाण में स्राव, पुट्ठे तथा योनि में दर्द, भीतर की सभी नस-नाड़ियों के योनि-मार्ग से बाहर निकल पड़ने जैसा अनुभव, जरायु में प्रदाह, सदैव तन्द्रालुता एवं मैथुन की अधिक इच्छा – इन सब लक्षणों में यह औषध अधिक लाभ करती है । कुछ चिकित्सकों के मतानुसार इस औषध के साथ पर्यायक्रम से ‘क्रोकस’ का भी प्रयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। विशेषकर रोग की पुरानी हालत में इन दोनों औषधियों का पर्यायक्रम से प्रयोग करना बहुत लाभकर रहता है।
इरिजिन 3x – प्रसव के बाद का आकस्मिक रज:स्राव, मूत्र-नली तथा गुदाद्वार में प्रदाह, रुक-रुक कर तथा अधिक परिमाण में चमकीले लाल रंग का रक्तस्राव होना, विशेषकर गर्भस्राव के पश्चात्-इन सब लक्षणों में यह औषध हितकर है।
आर्निका 2x – चोट लगने के कारण जरायु से अत्यधिक रज:स्राव होने में यह लाभकर है ।
ट्रिलियम 6 – धमनी से होने वाला गहरे लाल रंग का स्राव तथा जाँघों में दर्द, विशेषकर रक्त-स्रावी प्रकृति की रुग्णाओं के अतिरज: में इसे दें।
- यदि किसी भी औषध के प्रयोग से रक्त बहना बन्द न हो तो ऐसे विषम रक्त-प्रदाह में 5 बूंद ‘दालचीनी का तेल’ (Oil of Cinnamon) को एक ड्राम दूध में मिलाकर (यह एक मात्रा है) सेवन करना चाहिए ।
- यदि अत्यधिक रज:स्राव के साथ पेशाब में कष्ट तथा प्रदर के लक्षण हों तो ‘अशोक Q‘ को नियमित रूप से सेवन करते रहने पर धातु सम्बन्धी सभी विकार दूर हो जाते हैं ।
- ‘पीपल के पत्ते का रस’ देने की भी कभी आवश्यकता पड़ सकती है ।
- हैमामेलिस Q – के मूल-अर्क को 10 ग्रेन स्वच्छ जल में डालकर लोशन तैयार करें तथा उस लोशन में एक पतला साफ कपड़ा अथवा स्पंज भिगोकर उसे योनि में रखें तो इसे बहुत लाभ होगा ।
- धातुगत-दोष हो और रोगिणी के शरीर में शक्ति भी हो तो उसे गरम (सहन करने योग्य) पानी के टब में कमर डुबा कर 10-15 मिनट तक बैठना चाहिए तथा बाद में सूखे कपड़े से शरीर पोंछ देना चाहिए।
- रोगिणी अधिक शारीरिक अथवा मानसिक-परिश्रम न करे ।