जीवाणु द्वारा संक्रमित खाना, दूध अथवा पानी पीने के कारण यह रोग होता है। यह रोग सालमोनेलापेराटाइफी ए.व.बी.एवं मुख्यतया सालमोनेलाटाइफी जीवाणु के संक्रमण के कारण होता है।
टाइफाइड के लक्षण
इसकी समय-सीमा 10-14 दिन होती है।
प्रथम सप्ताह में – प्रकट होने वाले लक्षण
1. रोग धीरे-धीरे बढ़ता है और बदन में दर्द रहता है।
2. सिर के आगे वाले भाग (माथे) में दर्द रहता है।
3. बुखार धीरे-धीरे बढ़ता है।
4. उदर के ऊपरी हिस्से से परेशानी महसूस होती है।
5. जीभ सूखी एवं पपड़ीदार।
6. फेफड़ों के प्रकोष्ठों की सूजन
7. हृदय एवं नाड़ी की गति धीमी (ब्रेडिकार्डिया)
8. स्पलीन (प्लीहा) बढ़ी हुई एवं दबाने पर दर्द।
9. कुछ (10 से 20) प्रतिशत रोगियों में उदर पर लाल चकत्ते जैसे पड़ जाते हैं।
द्वितीय सप्ताह में –
1. बुखार लगातार बना रहता है।
2. रोगी के शरीर में विष बनने लगता है।
3. दिमाग कमजोर हो जाता है। सोचने-समझने की शक्ति धीमी पड़ जाती है।
4. पेट फूल जाता एवं तन जाता है।
5. दस्त (हरे-पीले रंग के) हो जाते हैं।
तृतीय सप्ताह में –
जो रोगी ठीक होने लगते हैं, उनमें शरीर का तापमान कम होने लगता है और शरीर में विष की मात्रा भी कम हो जाती है।
रोगी की पहचान
1. खून की जांच द्वारा जीवाणुओं का पता लगाया जा सकता है। इसके लिए कल्चर जांच (CultureTest) कराना आवश्यक है।
2. रोग के प्रथम सप्ताह में ही पाखाने की जांच में भी जीवाणु प्रकट हो जाते हैं।
3. विडाल जांच : यह एक विशेष प्रकार की जांच होती है, जो टायफाइडरोग की पहचान के लिए की जाने वाली सबसे उपयुक्त जांच है।
4. रक्त में लाल एवं सफेद कोशिकाओं की संख्या घट जाती है।
टाइफाइड से बचने के उपाय
1. बुखार उतरने तक बिस्तर पर आराम करना चाहिए।
2. खाने-पीने का सामान साफ और शुद्ध होना चाहिए एवं ढक कर रखना चाहिए।
3. दूध एवं पानी उबाल कर पीना चाहिए।
4. टट्टी-पेशाब सीवर (बंद जगहों पर) में ही कराने चाहिए। यदि खुले में ही कराना पड़े, तो ‘कार्बनिक एसिड’ नामक रसायन को ऊपर से डाल देना चाहिए (उक्त रसायन का 5% विलयन), जिससे जीवाणु पूरी तरह नष्ट हो जाए।
5. रोग की अवधि में दलिया, खिचड़ी आदि खाद्य पदार्थ ही देने चाहिए।
6. शरीर में पानी एवं लवणों की कमी नहीं होने देनी चाहिए। दूध, फलों का रस एवं पानी पिलाना चाहिए।
7. जो लोग सफर अधिक करते हों, उन्हें ‘टायफाइड वैक्सीन’ लगवा लेनी चाहिए।
टाइफाइड का होमियोपैथिक उपचार
‘विषम विष्य औषधम्’ के सिद्धांत के आधार पर ‘टायफाइड’ के लिए होमियोपैथिक औषधियां अत्यन्त कारगर हैं। टायफाइड (सन्निपात ज्वर) के लिए प्रयुक्त होने वाली प्रमुख होमियोपैथिक औषधियां हैं –
‘आर्सेनिक’, ‘आर्निका’, ‘फॉस्फोरिक एसिड’, ‘बेप्टिशिया’, ‘ब्रायोनिया’, ‘रसटाक्स’, ‘बेलाडोना’, ‘पायरोजेनियम’, ‘यूपेयेरियमपर्फ’ आदि।
• जब रोगी लगातार जीभ बाहर निकाले रखे, जीभ सूखी और फटी हुई हो, दांतों के बीच में भिच जाती हो, आंतों से, गुदा के रास्ते खूनी पेचिश हो रही हो, तो ‘लेकेसिस’ दवा उपयोगी रहती है। रोगी सोने के बाद अधिक परेशानी महसूस करता है।
बेप्टिशिया : शरीर में विष बनने के कारण उत्पन्न होने वाले लक्षणों के लिए उपयोगी हैं। शरीर के सभी स्राव (सांस, पेशाब, पखाना, पसीना आदि) अत्यधिक बदबूदार, रोगी को ऐसा महसूस होता है जैसे उसका शरीर टुकड़ों में बांट दिया गया है और वह उन्हें जोड़ना चाहता है। बिस्तर पर जिस करवट भी लेटता है उसी करवट बदन में दर्द भी होता है, गहरी निद्रामग्न रोगी कुछ भी बात पूछे जाने पर पूरा जवाब नहीं दे पाता और बोलते-बोलते बीच में ही सो जाता है, गले में सूजन होती है, किंतु दर्द नहीं महसूस होता, सिर्फ तरल पदार्थ पी सकता है। उक्त स्थिति में औषधियां निम्न शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए।
आर्निका : सारे बदन में दर्द, थकान, ऐसा महसूस होना जैसे किसी ने पीटा हो, जिस वस्तु पर भी लेटता है वही बहत सख्त मालूम देती है। ऊपर का शरीर गर्म, नीचे ठंडा, अधिक निद्रा, कोई सवाल पूछने पर जवाब तो पूरा दे देता है, किन्तु फौरन ही पुन: निद्रामग्न हो जाता है। छूने पर शरीर हिलाने-डुलाने पर परेशानी महसूस होती है, तो ‘आर्निका’ दवा 30 अथवा 200 शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए।
• टायफाइड रोग की आखिरी अवस्था में जब किसी भी प्रकार फायदा न हो ‘आर्सेनिक’ दवा 30 शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए।
• यदि टायफाइड के साथ फेफड़ों की परेशानियां भी जुड़ी हों, विषैले भोजन के बाद उल्टियां हो रही हों, प्यास अधिक हो और ठंडा पानी पीने की इच्छा हो एवं पानी पीने के थोड़ी देर बाद ही उल्टी हो जाती हो, तो ‘फॉस्फोरस’ दवा 30 शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए।
हायोसाइमस : रोगी चिड़चिड़ा एवं लड़ने वाला हो जाता है, मूर्छा आ जाती है, चेहरा पीला एवं सूखा हुआ, अचेतावस्था, आंखें खुली हुई, लेकिन उनसे देख नहीं रहा, क्योंकि अचेतन है, बिस्तर में पड़े-पड़े बड़बड़ाने लगे या घंटों चुप पड़ा रहे, पाखाना, पेशाब बिस्तर में ही निकल जाए, तो ‘सन्रिपात ज्वर’ में उक्त दवा 30 अथवा 200 शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए। साथ ही इसमें रोगी बहुत शक्की स्वभाव का ईर्ष्यालु एवं मूर्ख होता है। साथ ही शरीर पर लाल चकत्ते भी उभर आते हैं।
म्यूरियाटिक एसिड : यदि आंतों से काले रंग के रक्त का स्राव हो, कमजोरी की वजह से पाखाने के साथ बिस्तर में ही निकल जाए, मुंह में नीले घाव हों, जीभ सूखी एवं सिकुड़ी हुई एवं निष्क्रिय हो, नाड़ी धीमी चल रही हो, तो उक्त औषधि 30 शक्ति में प्रयोग करनी चाहिए। इसमें रोगी को बवासीर की भी शिकायत रहती है और जरा-सा छूने पर ही रोगी चिल्ला उठता है। इसके अलावा ‘बेलाडोना’, ‘ओपियम’ एवं ‘रसटॉक्स’ दवाएं भी उपयोगी हैं।
• टायफाइड रोग में ‘टायफोइडिनम’ औषधि भी उच्च शक्ति में प्रयोग की जा सकती है।
• ‘यूकेलिप्टस’ औषधि मूल अर्क में पिलाने पर बुखार उतरता है।