गर्भवती महिलाओं में गर्भधारण के समय प्रसव के समय और प्रसव के बाद मुख्यत: निम्नलिखित जटिलताएं देखी जाती हैं –
संक्रमण या सेप्सिस : सामान्य प्रसव में नहीं के बराबर संक्रमण होता है, लेकिन जब प्रसव (डिलीवरी) में दिक्कत होती है अथवा प्रसव के समय सफाई पर विशेष ध्यान न दिया जाए, गर्भपात हो जाए या गंदे तरीके से गर्भपात किया जाए, तो बच्चेदानी में संक्रमण आसानी से हो जाता है, जो रक्त नलिकाओं के द्वारा पूरे शरीर में फैल जाता है। ऐसी महिला को पेट के निचले भाग में दर्द, बुखार, उल्टियां और सिरदर्द जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
बच्चेदानी से बदबूदार, गंदला स्राव भी आने लगता है। गंदे कपड़े का प्रयोग रोग को और बढ़ा देता है। समुचित उपचार के अभाव में रोगिणी में रक्त की कमी, नाड़ी की चाल तेज, ब्लड प्रेशर कम और फिर बेहोशी हो जाती है। कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है।
रक्त स्राव : गर्भवती महिला में रक्त स्राव दो स्थितियों में हो सकता है, प्रसव से पहले और प्रसव के बाद। गर्भवती महिला में बच्चेदानी से रक्त स्राव हमेशा एक गंभीर और चिंता का विषय होता है, जिसका कारण मालूम करना और त्वरित उपचार आवश्यक होता है।
गर्भपात : रक्त स्राव का एक मुख्य कारण है। यदि यह गर्भवती महिला में 28 सप्ताह से पहले हुआ हो और यदि रक्त स्राव उसके बाद हुआ हो, तो इसका मुख्य कारण नाल (प्लेसेंटा) का समय से पहले अलग हो जाना या जननतंत्र में चोट लग जाना होता है।
प्रसव के बाद होने वाले रक्त स्राव का मुख्य कारण नाल (प्लेसेंटा) का गर्भाशय से पूरी तरह अलग न होना है। नाल का चिपके रहने के अलावा यदि प्रसव में आवश्यकता से अधिक देर लगे अथवा प्रसव में औजार की जरूरत हो जाए या बच्चेदानी में ट्यूमर (गांठ या फाइब्रोयड) हो, तो भी रक्त स्राव हो सकता है।
रक्त की तुरंत व्यवस्था : गर्भवती महिला की जान बचाने के लिए यह आवश्यक होता है, लेकिन रक्त स्वस्थ व्यक्ति का (जिसका हीमोग्लोबिन प्रतिशत अधिक हो) और सही ग्रुप ए, बी, एबी, ओ तथा आर. एच. फैक्टर (नेगेटिव है अथवा पोजिटिव) का होना चाहिए और बहुत सावधानी से चढ़ाना आवश्यक होता है।
झटके आना : वैसे तो गर्भवती महिला में झटके या दौरे पड़ने के कई कारण होते हैं, लेकिन गर्भधारण के कारण झटके आने के रोग को एकलेम्पसिया कहते हैं। इस स्थिति में यदि उचित उपचार न किया जाए, तो गर्भवती की मृत्यु कुछ ही घंटों या एक-दो दिनों में ही हो सकती है। ऐसी महिला को तुरंत अस्पताल में भरती करवा देना चाहिए।
बच्चेदानी का फट जाना एवं प्रसव में अधिक समय लगना : यदि गर्भवती महिला की वस्ति प्रदेश की हड्डियों (पैलविस) के बीच का स्थान बहुत संकरा है, तो प्रसव में अधिक समय लगने की संभावना रहती है, जिसके कारण शिशु के विकास में परेशानी रहती है। इससे कभी-कभी बच्चेदानी फटने का भी आशंका रहती है।
रक्त की कमी : यह खास तौर से विकासशील देशों की गर्भवती महिलाओं में मुख्य रूप से देखने को मिलती है, यदि इसे शीघ्र पहचानकर उचित बचाव एवं उपचार न किया जाए, तो यह उनकी मृत्यु का भी कारण बन जाती है।
एक्टापिक प्रेग्नेंसी : गर्भ की स्थापना यदि बच्चेदानी में न होकर, नली (फैलोपिनयन ट्यूब) में हो जाए, तो बढ़ता हुआ गर्भ उसमें नहीं समा पाता। फलत: वह ट्यूब फट जाती है, जिससे रक्तस्राव होने के कारण महिला को पेट में भयंकर दर्द होता है और रोगी का रक्तचाप अचानक गिर जाता है। ऐसी महिला में तुरंत आपरेशन आवश्यक होता है, अन्यथा कुछ ही घंटों में महिला की मृत्यु हो सकती है।
अन्य कारण
मुख्यत: रियूमैटिक हृदय रोग, पीलिया (हिपेटाइटिस), मस्तिष्क ज्वर, डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर की जटिलताएं इत्यादि वे कारण हैं, जिनसे प्रसव के दौरान गर्भवती महिला की मृत्यु भी हो सकती है।
उपचार
संक्रमण की स्थिति में ‘सीपिया’, ‘साइलेशिया’, ‘पल्सेटिला’ ; रक्तस्राव के कारण ‘चाइना’, ‘फेरमफॉस’, ‘नेट्रमम्यूर’ ; झटके आने की स्थिति में ‘अर्जेण्टम नाइट्रिकम’, ‘सिक्यूटा वाइरोसा’, ‘हायोसाइमस’, ‘ऑस्कस’, ‘नक्समॉशचेटा’, ‘एसाफोइटिडा’, ‘वेलेरियाना’, ‘एम्ब्राग्रीजिया’; पीलिया की स्थिति में ‘चेलीडोनियम’, ‘काबोंवेज’ ; मस्तिष्क ज्वर, तपेदिक इत्यादि होने पर ‘बेसीलाइनम’; उच्च रक्तचाप होने पर ‘बेलाडोना’, ‘ग्लोनाइन’, ‘ओरम’,’ बेरयटामूर’ औषधियां अत्यधिक फायदेमंद रहती हैं।
• जब दौरों के दौरान रोगिणी उठ जाए, अत्यधिक हाथ-पैर फेंकने लगे, काबू से बाहर हो जाए, तो ‘सिक्यूट वाइरोसा’ 30 अथवा 200 शक्ति में देनी चाहिए।
जब शरीर की प्रत्येक मांसपेशी में (आंख से लेकर पैर के अंगूठे तक) ऐंठन होने लगे, तो ‘हायोसाइमस’ 200 में देनी चाहिए।
दौरे के दौरान रोगिणी जरा-सी देर में हँसने लगे, फिर जरा-सी देर में कराहने लगे, तो ऐसी स्थिति में ‘नक्समॉशचेटा’ 6 अथवा 30 शक्ति में देना हितकर रहता है।
दौरे के साथ छाती में ऐंठन होने लगे, हृदयगति बढ़ जाए, सांस लेने में तकलीफ होने लगे, रोगिणी ‘मैं मर जाऊंगी….’ चिल्लाने लगे, आंखें उठ जाएं, होंठ नीले पड़ जाएं और रोगी को मूछाँ आ जाए, तो ‘मोस्कस’ दवा उसे 30 शक्ति में देनी चाहिए।
दौरे की स्थिति में गैस अधिक बनने, अत्यधिक डकारें एवं हिचकियां आने तथा गैस का गोला उठने की स्थिति में ‘एसाफोइटिडा’ औषधि 6 से 30 शक्ति में देनी चाहिए।
अत्यधिक चिड़चिड़ापन, लगातार हाथ-पैर पटकना, अधिक संवेदनशीलता, हाथ-पैरों में टूटन एवं ऐंठननुमा दर्द, ऐसा महसूस होना जैसे रोगिणी हवा में तैर रही है आदि लक्षण मिलने पर ‘वेलेरियाना’ मूल अर्क में अथवा 3 × शक्ति में लेनी चाहिए। इसमें पैर जमीन पर रखना अत्यंत कष्टप्रद होता है। गर्भवती स्त्रियों में ‘साइटिका’ का दर्द होने पर भी (कूल्हे की अथवा घुटने की गठिया) भी ‘वेलेरियाना’ से ठीक हो जाती है।
तीव्र खांसी जैसे दौरा पड़ रहा हो, अत्यधिक डकारें, गैस, दो मासिक स्राव के बीच रक्त बहना, जरा-सा परिश्रम अथवा पाखाने करने में जोर लगाने पर योनि से रक्त स्राव होने की स्थिति में ‘एम्ब्राग्रीसिया’ 3 से 30 शक्ति में देनी लाभप्रद रहती है।
पेट में कीड़े होने की स्थिति में सिना के अलावा (यदि हुक वार्म हैं तो) ‘चीनीपोडियम’, ‘कार्बनटेट्राक्लोराइड’ एवं ‘थाइमोल’ औषधियां प्रयोग करनी चाहिए।
मलेरिया होने पर अन्य बुखार की औषधियों के अलावा ‘एल्सटोनिया’ का मूल अर्क, टायफाइड होने पर ‘यूकेलिप्टस’ मूल अर्क में लेना चाहिए। मलेरिया में चिनिनम आर्स व चाइना औषधियां भी लक्षणों की समानता के आधार पर उचित रहती हैं। .
यदि प्रसव पीड़ा उचित ढंग से न सम्भव हो पा रही हो और गर्भाशथ की गति (संकुचन एवं फैलाव) ठीक न हो, तो ‘कालोफाइलम’ औषधि 3 x से 200 तक बहुपयोगी रहती है और एक-दो खुराक देने के थोड़ी देर बाद ही गर्भाशय के संकुचन के साथ ही बच्चा मां के गर्भ से बाहर नई दुनिया में आ जाता है और जच्चा-बच्वा दोनों का खतरा टल जाता है।
हड्डी की सुरक्षा कैल्शियम द्वारा
किडनी के रोग के कारण हड्डी को कमजोर होने से बचाने के लिए प्रतिदिन 1.500 मिलिग्राम कैल्शियम लें तथा सप्ताह में चार बार 20 से 30 मिनट तक व्यायाम करें।