परिचय : 1. इसे तिल (संस्कृत), तिल (हिन्दी), तिल (बंगाली), तीळ (मराठी), तल (गुजराती), एल्लु (तमिल), गुब्बलु (तेलुगु) सिमसिम (अरबी) तथा सिसेमम इण्डिकम (लैटिन) कहते हैं।
2. तिल का पौधा 1-2 फुट ऊँचा और मुलायम रेशों से युक्त होता है। तिल के पत्ते 3-5 इन्च लम्बे, छोटे-बड़े कई आकार के होते हैं। तिल के फूल मुलायम, रोगयुक्त, नीलापन लिये कई रंगों के होते हैं। तिल के बीज छोटे और उसी रंग के होते हैं।
3. यह समस्त भारत में पाया जाता है। इसकी खेती भी की जाती है।
4. तिल के बीजों के रंग-भेद से उसके निम्नलिखित तीन प्रकार मिलते हैं : (क) श्वेत तिल (इनसे तेल अधिक निकलता है।) (ख) रक्त तिल (रामतिल, फूल चित्र-विचित्र)। (ग) कृष्ण तिल (औषधि के लिए श्रेष्ठ)।
रासायनिक संघटन : इसके बीजों में स्थिर तेल 50-60 प्रतिशत, मांसतत्त्व 22 प्रतिशत, वेजिटेबल तत्त्व 18 प्रतिशत, म्युसिलेज 4 प्रतिशत, काष्ठभाग 4 प्रतिशत तथा एश (भस्म) 84 प्रतिशत होते हैं। बीजों से प्राप्त होनेवाले तेल में पतला चिकना भाग 70 प्रतिशत, गाढ़ा चिकना भाग, सिसेमिन तथा सिसेमाल रहते हैं।
तिल के गुण : यह स्वाद में मीठा, चरपरा, कडुवा, पचने पर कटु तथा गर्म, रूखा और हल्का है। इसका मुख्य प्रभाव त्वचा-ज्ञानेन्द्रिय पर कुष्ठध्न (कुष्ठ आदि चर्मविकार-नाशक) रूप में पड़ता है। यह कृमिनाशक, विषहर, केशों के लिए लाभकर, हृदय-उत्तेजक, कफध्न, शोथहर तथा कटु पौष्टिक है।
प्रकृति – गर्म। तिल सर्दी के मौसम का शक्तिप्रद खाद्य है। गर्भवती को तिल न खिलायें, इससे गर्भ गिर सकता है। काले तिल उत्तम होते हैं। तिल चर्म को साफ करने वाले, दूध बढ़ाने वाले, मस्तिष्क शक्तिवर्धक हैं। ‘तिल’ शब्द से ‘तेल’ शब्द का चलन हुआ है। तेल तिल का द्योतक है। तिल धोकर ही खाने के काम में लेने चाहिए।
तिल सेवन करने से पाचन-क्रिया ठीक रहती है, भूख अच्छी लगती है। चिड़चिड़ापन दूर होता है, स्मरण-शक्ति बढ़ती है। मन शान्त रहता है। थकावट दूर होती है। दमा, खाँसी, फेफड़ों के रोगों में लाभ होता है। नेत्र रोग, गठिया में लाभ होता है। वातनाशक, कफनाशक, वीर्यवर्धक और बालों के लिए लाभदायक है।
तिल की गजक, रेवड़ी, पापड़, लड्डू सर्दी के मौसम में खाने से वात, कफ का नाश होता है। बार-बार पेशाब जाना कम होता है। ये वीर्यवर्धक रसायन हैं।
तिलों के सेवन से किसी प्रकार की हानि हो तो प्याज, नीबू सेवन करें।
तिल का तेल शरीर में जल्दी से फैलकर छोटे से छोटे छिद्रों में चला जाता है।
औषधियुक्त तेल बनाने में तिल का तेल अधिक लाभ करता है। तेल शुद्ध होना चाहिये।
गण्डूष – 20 ग्राम तेल मुँह में भरकर कम से कम पाँच मिनट कुलकुलाते रहें, यह तेल-गण्डूष क्रिया है।
तेल-गण्डूष अर्थात् मुँह में तेल रखने से जबड़ा, आवाज, शरीर पुष्ट हो जाता है, होंठ नहीं फटते, कण्ठ नहीं सूखता, दाँतों में दर्द नहीं होता तथा दाँत मजबूत रहते हैं। पायोरिया ठीक होता है।
कान – सात दिन में एक बार दोनों कानों में तीन-तीन बूंद तेल की डालें। इससे कान स्वस्थ रहेंगे। सुनने की शक्ति अच्छी रहेगी।
वात-रोग – तिल के तेल की मालिश करने से वात रोग में लाभ होता है।
बिस्तर में पेशाब – तिल खाने या तिल से बनी गजक, रेवड़ी, लड्डू खाने से बच्चे बिस्तर में पेशाब करना बन्द कर देते हैं।
अधिक पेशाब – दो बार तिल का लड्डू खाने से अधिक पेशाब आना बन्द हो जाता है।
बार-बार पेशाब, बिस्तर में पेशाब – (1) 50 ग्राम काले तिल, 25 ग्राम अजवायन, 100 ग्राम गुड़ में मिला लें। इसे 8 ग्राम नित्य सुबह-शाम खाते रहने से बार-बार पेशाब जाना एवं बच्चों का बिस्तर पर पेशाब करना बन्द हो जायेगा। (2) दो चम्मच तिल + दो चम्मच अजवायन मिलाकर चबायें और पानी पियें। एक सप्ताह सेवन करने के बाद से लाभ होता जायेगा। यह मधुमेह, धातु गिरने में भी लाभदायक है।
बाल – जिनके बाल सफेद हो गए हों, बाल झड़ते हों, गंजापन हो, यदि वे नित्य तिल खाने लगें तो उनके बाल लम्बे, मुलायम और काले हो जायेंगे।
फरास – बालों में तिल के तेल की मालिश करें। मालिश के आधे घण्टे बाद एक तौलिया गर्म पानी में डुबोकर, निचोड़कर सिर पर लपेट लें, ठण्डा होने पर पुन: गर्म पानी में डुबोकर, निचोड़कर सिर पर लपेट लें। इस प्रकार पाँच मिनट गर्म लपेट रखें। फिर ठण्डे पानी से सिर धो लें। बालों से रूसी दूर हो जायेगी।
अर्श – इसे पीसकर बवासीर के मस्सों पर गर्म करके बाँधे और मक्खन के साथ मिलाकर खाने को दें।
पौष्टिक – यह शरीर के लिए अत्यन्त पौष्टिक है। अत: कई प्रकार के पाकों में इसका उपयोग किया जाता है।